शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

स्थायी निवास पर राजनीति

स्थायी निवास पर राजनीति
राजेन्द्र जोशी
देहरादून। कांग्रेस सरकार ने बीते दिन स्थायी निवास की कट ऑफ डेट को लेकर जो शासनादेश जारी किया, उसका कोई औचित्य ही नहीं बनता है, क्योंकि मामला अभी भी हाईकोर्ट की डबल बैंच में विराचाधीन है। नैनीताल हाईकोर्ट के 17 अगस्त 2012 के फैसले के आधार पर बीते दिन सरकार द्वारा स्थायी निवास की जो कट ऑफ डेट पर शासनादेश जारी किया है, वह सिर्फ वर्तमान समय में हो रहे निकाय और पंचायत चुनावों में जनता को रिझाने का एक प्रयास है। नैनीताल हाईकोर्ट की डबल बैंच का निर्णय आने के बाद ही इस मुद्दे पर कोई अंतिम निर्णय लिया जा सकता है। सरकार ने भी यह बात अपने शासनादेश में स्वीकार की है।
बीते दिन सरकार द्वारा स्थायी निवास की कट ऑफ डेट को लेकर जारी शासनादेश के खिलाफ अब विरोध साफ देखने को मिल रहा है। वहीं इस मामले में राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि कट ऑफ डेट के मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देर्शों का पालन किया जाना चाहिए, जिसमें उसने राज्यों में रहने वाले लोगों की स्थाई और मूल निवास के मामले पर कट ऑफ डेट 1950 तय की थी। आंदोलनकारियों का कहना है कि सरकार का यह शासनादेश लोगों को भ्रमित करने वाला है इस शासनादेश में सिर्फ अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को कट ऑफ डेट में छूट देते हुए राज्य गठन की तिथि 9 नवम्बर 2000 की गयी है। जबकि सामान्य वर्ग के लिए यह कट ऑफ डेट राज्य गठन के 15 साल पहले यानि की 1985 ही रखी गयी है। जिसका मतलब है कि जो लोग पिछले 27 से अधिक समय से राज्य में रह रहे है वही राज्य के स्थायी निवासी होंगे। लेकिन सामान्य तौर पर इस शासनादेश के बारे में प्रचारित यहीं किया जा रहा है कि राज्य गठन के समय से राज्य में रह रहे लोगों को राज्य का स्थायी निवासी माना जायेगा। वहीं दूसरी ओर राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि पीढ़ीदर-पीढ़ी जो लोग उत्तराखण्ड में रह रहे हैं और जिन्होंने राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ी, उनके साथ राज्य सरकार छलावा कर रही है, सरकार के इस फैसले से मूल उत्तराखण्ड के निवासियों को कोई लाभ नहीं होने वाला, बल्कि इसका लाभ उन लोगों को मिलेगा, जिन्होंने राज्य आंदोलन की मुखालफत की थी। राज्य आंदोलनकारियों ने कहा कि ऐसी स्थिति में जब अभी हाईकोर्ट द्वारा इस फैसले में किसी भी तरह का परिवर्तन किया जा सकता हैं सरकार द्वारा लाये गये इस शासनादेश का क्या औचित्य है। हालांकि यह यह संपूर्ण प्रकरण नैनीताल उच्च न्यायालय के एकल बैंच द्वारा निर्णय दिए जाने के बाद अब डबल बैंच में निर्णय के लिए सुरक्षित है। ऐसे में यह कहना गलत होगा कि नैनीताल उच्च न्यायालय के निर्णय को ही अंगिगृत कर लिया जाएगा। क्यांेकि राज्य आंदोलनकारी संगठन और राज्य के दूर-दराज इलाकों में कार्य कर रहे स्वयं सेवी संगठनों द्वारा इस मामले पर डबल बैंच के निर्णय आने के बाद भी राज्यवासियों के हितों के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।
वहीं राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि प्रदेश में होने वाले निकाय चुनावों के लिए अधिसूचना जारी होने वाली है, जिससे ठीक पूर्व सरकार द्वारा यह शिगूफा छोड़ा गया है, ताकि उसे निकाय चुनाव में इसका लाभ मिल सके। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई ऐसा मुद्दा अभी तक उसके पास नहीं था, जिससे की वह जनता से वोट मंाग सके। क्योंकि महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लेकर कंेद्र से लेकर राज्य की कांग्रेस सरकार कटघरे में है।

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