बुधवार, 17 जुलाई 2013

लोग मर रहे हैं, संत लड रहे हैं

लोग मर रहे हैं, संत लड रहे हैं

डॉ. सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड की तबाही में कई हजार लोग मारे गए, परिवार तबाह हो गए हैं और लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है, लेकिन संतों-धर्माचार्याें की चिंता केवल भगवान केदारनाथ की पूजा तक सिमट कर रह गई है। संत इस बात को लेकर भिड़ गए हैं कि केदारनाथ की पूजा उनके शीतकालीन गद्दीस्थल उखीमठ में क्यों शुरू कर दी गई। लाशों के अंबार के बीच संतों की प्राथमिकता यह कि परंपरा सुरक्षित रहे, लोगों का क्या, वे तो मरते-जीते रहते हैं।
दुनिया के तमाम धर्माें, चाहे वे एकेश्वरवादी हों या बहुदेववादी, में ईश्वर को करुणावान, न्यायकारी, समदृष्टा, भक्त-वत्सल और पीड़ा में पड़े लोगों का उद्धार करने वाला बताया गया है। पर, उत्तराखंड की त्रासदी के बाद इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि सच में ईश्वर वैसा ही, जैसा कि उपरोल्लिखित विशेषणों में कहा गया है। खैर, भगवान को जो करना था, उन्होंने वो कर दिया और धर्मभीरू लोगों ने इसे स्वीकार भी कर लिया, लेकिन धरती पर भगवान के प्रतिनिधि कहलाने वाले संत और धर्माचार्य जो कुछ कर रहे हैं वो और ज्यादा पीड़ादायक है। उत्तराखंड की केदारघाटी के अलावा विभिन्न घाटियों, पहाड़ों, चट्टियों और नदियों के कैचमेंट में फंसे करीब एक लाख लोगों को सेना, अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सुरक्षित निकाले जाने के बाद संत सक्रिय हो गए हैं। यंू तो वे पिछले एक सप्ताह से सक्रिय थे, लेकिन उनकी सक्रियता हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश आदि अपेक्षाकृत सुरक्षित जगहों तक सीमित थी। लेकिन, अब वे केदारनाथ की पूजा को लेकर भिड़े हुए हैं। केदारनाथ शैव परंपरा की पीठ है और भगवान केदारनाथ गर्मी के दिनों में केदारनाथ में और सर्दी के दिनों में उखीमठ में पूजे जाते हैं। केदारनाथ की विषम स्थितियों को देखते हुए केदारनाथ के रावल (वरिष्ठ पुजारी, जिन्हें लिंगशिवाचार्य भी कहा जाता है) ने उनकी पूजा उखीमठ में आरंभ करा दी। इस पर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और उनके समर्थक संत भड़के हुए हैं कि आखिर, रावल ने उनकी सहमति के बिना पूजा-अर्चना कैसे शुरू करा दी। अब शंकराचार्य अपनी मंडली के साथ केदारनाथ जाना चाहते हैं ताकि मंदिर की शुद्धि कराकर वहां पूजा आरंभ करा सकें। लेकिन, उनसे यह पूछने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता कि पिछले दस दिन से यह संत मंडली कहां थी ? यह सवाल भी कायम है कि क्या संतों की चिंता केवल भगवान की पूजा और केदारनाथ की परंपरा को बचाए रखने तक सीमित है ? क्या भगवान के भक्तों और भगवान के दर पर प्रकृति के तांडव से सताए गए लोगों के बारे में सोचने का काम केवल सेना और सरकार का है। उखीमठ में पूजा के मामले में संत दो गुटों में विभाजित हो गए हैं। शंकराचार्य माधवाश्रम, शंकराचार्य वासुदेवानंद, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री श्रीमहंत हरिगिरि और जूना अखाड़ा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीमहंत प्रेमगिरि उखीमठ में पूजा शुरू किए जाने के हिमायती हैं, लेकिन अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता हठयोगी दिगंबर, रामानंदाचार्य हंसदेवाचार्य और महामंडलेश्वर हरिचेतनानंद आदि इसके विरोध में हैं।
आपदा के बाद 14वें तक दिन भी सेना का बचाव अभियान चल रहा है, हजारों लोग अपने लापता परिजनों को ढूंढ रहे हैं, गांव के गांव नदियों के साथ बह गए हैं और पहाड़ के उंचाई वाले इलाकों में स्थानीय लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे हालात में क्या संतों के पास केवल यही काम है कि वे पूजा-अर्चना और परंपरा को बचाने की लड़ाई लड़ते नजर आएं। लोगों के मनो-मस्तिष्क यह प्रश्न भी खड़ा हो रहा है कि देश के नामी संत इस वक्त कहां हैं। इसमें चाहें तो आसाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर, कृपालु महाराज, मोरारी बापू, कौशल महाराज, बाबा हरदेव सिंह, सुधांशु महाराज, रामरहीम सिंह, विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, अखाड़ों के पीठाधीश्वर आदि बड़े नामों का जिक्र कर सकते हैं। इन नामों की सूची बहुत लंबी है। इनमें से किसी संत ने गुपचुप कोई मदद कर दी हो तो अलग बात है, सार्वजनिक रूप से किसी को यह नहीं पता कि ये आपदा के वक्त पीड़ितों के साथ खड़े थे या नहीं। वास्तव में, सुविधापूर्ण जिंदगी जी रहे संतों, बाबाओं, मठाधीशों से यह उम्मीद करना बेकार है वे उदारमना होकर अपने मठों की तिजोरियां खोल देंगे।
केवल संतों-मठाधिपतियों ने ही नहीं, देश के नामी मंदिरों, मठों, ट्रस्टों ने भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। दर्जनों मंदिरों-मठों के पास अरबों की संपत्ति है। मसलन, तिरुपति बालाजी मंदिर की कुल संपत्ति पांच हजार करोड़ ज्यादा है, शिरडी साईं बाबा का मंदिर आय के मामले में भारत का दूसरा सबसे धनवान मंदिर है और इसकी संपत्ति भी ढाई हजार करोड से ज्यादा की बताई जाती है, तीसरे नंबर पर माता वैष्णों देवी का मंदिर है जिसकी सालाना आय 500 करोड़ रुपए है। ऐसे मंदिरों का आंकड़ा एक दर्जन से ज्यादा है जहां साल भर में सौ करेाड़ से ज्यादा की आय होती है। लेकिन, किसी ट्रस्ट या मठाधिपतियों की ओर से पीड़ितों को राहत पहुंचाने, उत्तराखंड के उजड़े हुए गांवों को बसाने की लिए कोई ऐलान नहीं हुआ। आखिर, मठों-मंदिरों की यह संपत्ति भी तो जनता की है। जनता की न भी मानें तो इसे भगवान की मान लें। इस वक्त उन लोगों की पहचान होना जरूरी है जो भगवान की इस संपदा को पीड़ितों के लिए खर्च करने को तैयार नहीं हैं। और हां, उन ज्योतिषियों का पता लगाने की भी जरूरत है जो भगवान के भक्तों और आस्थावान लोगों से भरपूर लाभ उठाते रहे हैं। आखिर, उन्होंने समय रहते लोगों को आगाह क्यों नहीं किया वे इस बार उत्तराखंड न जाएं, वहां जान से हाथ धोना पड़ सकता है। या वे भी केवल भ्रमजाल फैलाने वाले गिरोहों का हिस्साभर हैं ?
इस आपदा के वक्त भगवान केदारनाथ और बदरीनाथ की महिमा और वैभव का खूब प्रचार हुआ है, लेकिन एक सैन्य अधिकारी के उस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर, भगवान इतना नाराज क्यों है कि वह यहां मदद कर रहे लोगों को ही मार रहा है। पीड़ितों को बचाते वक्त मारे गए 20 अधिकारियों-सैनिकों का क्या अपराध था ? किसी धर्माचार्य के पास इसका कोई जवाब है ?
डॉ. सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड की तबाही में कई हजार लोग मारे गए, परिवार तबाह हो गए हैं और लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है, लेकिन संतों-धर्माचार्याें की चिंता केवल भगवान केदारनाथ की पूजा तक सिमट कर रह गई है। संत इस बात को लेकर भिड़ गए हैं कि केदारनाथ की पूजा उनके शीतकालीन गद्दीस्थल उखीमठ में क्यों शुरू कर दी गई। लाशों के अंबार के बीच संतों की प्राथमिकता यह कि परंपरा सुरक्षित रहे, लोगों का क्या, वे तो मरते-जीते रहते हैं।
दुनिया के तमाम धर्माें, चाहे वे एकेश्वरवादी हों या बहुदेववादी, में ईश्वर को करुणावान, न्यायकारी, समदृष्टा, भक्त-वत्सल और पीड़ा में पड़े लोगों का उद्धार करने वाला बताया गया है। पर, उत्तराखंड की त्रासदी के बाद इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि सच में ईश्वर वैसा ही, जैसा कि उपरोल्लिखित विशेषणों में कहा गया है। खैर, भगवान को जो करना था, उन्होंने वो कर दिया और धर्मभीरू लोगों ने इसे स्वीकार भी कर लिया, लेकिन धरती पर भगवान के प्रतिनिधि कहलाने वाले संत और धर्माचार्य जो कुछ कर रहे हैं वो और ज्यादा पीड़ादायक है। उत्तराखंड की केदारघाटी के अलावा विभिन्न घाटियों, पहाड़ों, चट्टियों और नदियों के कैचमेंट में फंसे करीब एक लाख लोगों को सेना, अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सुरक्षित निकाले जाने के बाद संत सक्रिय हो गए हैं। यंू तो वे पिछले एक सप्ताह से सक्रिय थे, लेकिन उनकी सक्रियता हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश आदि अपेक्षाकृत सुरक्षित जगहों तक सीमित थी। लेकिन, अब वे केदारनाथ की पूजा को लेकर भिड़े हुए हैं। केदारनाथ शैव परंपरा की पीठ है और भगवान केदारनाथ गर्मी के दिनों में केदारनाथ में और सर्दी के दिनों में उखीमठ में पूजे जाते हैं। केदारनाथ की विषम स्थितियों को देखते हुए केदारनाथ के रावल (वरिष्ठ पुजारी, जिन्हें लिंगशिवाचार्य भी कहा जाता है) ने उनकी पूजा उखीमठ में आरंभ करा दी। इस पर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और उनके समर्थक संत भड़के हुए हैं कि आखिर, रावल ने उनकी सहमति के बिना पूजा-अर्चना कैसे शुरू करा दी। अब शंकराचार्य अपनी मंडली के साथ केदारनाथ जाना चाहते हैं ताकि मंदिर की शुद्धि कराकर वहां पूजा आरंभ करा सकें। लेकिन, उनसे यह पूछने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता कि पिछले दस दिन से यह संत मंडली कहां थी ? यह सवाल भी कायम है कि क्या संतों की चिंता केवल भगवान की पूजा और केदारनाथ की परंपरा को बचाए रखने तक सीमित है ? क्या भगवान के भक्तों और भगवान के दर पर प्रकृति के तांडव से सताए गए लोगों के बारे में सोचने का काम केवल सेना और सरकार का है। उखीमठ में पूजा के मामले में संत दो गुटों में विभाजित हो गए हैं। शंकराचार्य माधवाश्रम, शंकराचार्य वासुदेवानंद, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री श्रीमहंत हरिगिरि और जूना अखाड़ा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीमहंत प्रेमगिरि उखीमठ में पूजा शुरू किए जाने के हिमायती हैं, लेकिन अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता हठयोगी दिगंबर, रामानंदाचार्य हंसदेवाचार्य और महामंडलेश्वर हरिचेतनानंद आदि इसके विरोध में हैं।
आपदा के बाद 14वें तक दिन भी सेना का बचाव अभियान चल रहा है, हजारों लोग अपने लापता परिजनों को ढूंढ रहे हैं, गांव के गांव नदियों के साथ बह गए हैं और पहाड़ के उंचाई वाले इलाकों में स्थानीय लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे हालात में क्या संतों के पास केवल यही काम है कि वे पूजा-अर्चना और परंपरा को बचाने की लड़ाई लड़ते नजर आएं। लोगों के मनो-मस्तिष्क यह प्रश्न भी खड़ा हो रहा है कि देश के नामी संत इस वक्त कहां हैं। इसमें चाहें तो आसाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर, कृपालु महाराज, मोरारी बापू, कौशल महाराज, बाबा हरदेव सिंह, सुधांशु महाराज, रामरहीम सिंह, विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, अखाड़ों के पीठाधीश्वर आदि बड़े नामों का जिक्र कर सकते हैं। इन नामों की सूची बहुत लंबी है। इनमें से किसी संत ने गुपचुप कोई मदद कर दी हो तो अलग बात है, सार्वजनिक रूप से किसी को यह नहीं पता कि ये आपदा के वक्त पीड़ितों के साथ खड़े थे या नहीं। वास्तव में, सुविधापूर्ण जिंदगी जी रहे संतों, बाबाओं, मठाधीशों से यह उम्मीद करना बेकार है वे उदारमना होकर अपने मठों की तिजोरियां खोल देंगे।
केवल संतों-मठाधिपतियों ने ही नहीं, देश के नामी मंदिरों, मठों, ट्रस्टों ने भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। दर्जनों मंदिरों-मठों के पास अरबों की संपत्ति है। मसलन, तिरुपति बालाजी मंदिर की कुल संपत्ति पांच हजार करोड़ ज्यादा है, शिरडी साईं बाबा का मंदिर आय के मामले में भारत का दूसरा सबसे धनवान मंदिर है और इसकी संपत्ति भी ढाई हजार करोड से ज्यादा की बताई जाती है, तीसरे नंबर पर माता वैष्णों देवी का मंदिर है जिसकी सालाना आय 500 करोड़ रुपए है। ऐसे मंदिरों का आंकड़ा एक दर्जन से ज्यादा है जहां साल भर में सौ करेाड़ से ज्यादा की आय होती है। लेकिन, किसी ट्रस्ट या मठाधिपतियों की ओर से पीड़ितों को राहत पहुंचाने, उत्तराखंड के उजड़े हुए गांवों को बसाने की लिए कोई ऐलान नहीं हुआ। आखिर, मठों-मंदिरों की यह संपत्ति भी तो जनता की है। जनता की न भी मानें तो इसे भगवान की मान लें। इस वक्त उन लोगों की पहचान होना जरूरी है जो भगवान की इस संपदा को पीड़ितों के लिए खर्च करने को तैयार नहीं हैं। और हां, उन ज्योतिषियों का पता लगाने की भी जरूरत है जो भगवान के भक्तों और आस्थावान लोगों से भरपूर लाभ उठाते रहे हैं। आखिर, उन्होंने समय रहते लोगों को आगाह क्यों नहीं किया वे इस बार उत्तराखंड न जाएं, वहां जान से हाथ धोना पड़ सकता है। या वे भी केवल भ्रमजाल फैलाने वाले गिरोहों का हिस्साभर हैं ?
इस आपदा के वक्त भगवान केदारनाथ और बदरीनाथ की महिमा और वैभव का खूब प्रचार हुआ है, लेकिन एक सैन्य अधिकारी के उस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर, भगवान इतना नाराज क्यों है कि वह यहां मदद कर रहे लोगों को ही मार रहा है। पीड़ितों को बचाते वक्त मारे गए 20 अधिकारियों-सैनिकों का क्या अपराध था ? किसी धर्माचार्य के पास इसका कोई जवाब है ?

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