गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

उत्तराखण्ड को जरूरत है नये भूमि सुधार कानून की !

n18उत्तराखण्ड अपने आप में देश का ऐसा पहला राज्य होगा जिसका अपना कोई एक भू-सुधार कानून नहीं है ? राज्य बनने के 14 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे द्वारा अब तक की निर्वाचित सरकारें राज्य का अपना एक नया भू-सुधार कानून बनाने के प्रति कहीं से भी चिंतित नहीं दिखाई दे  रही हैं l अभी भी हमारे राज्य में “उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम-1950 ” ही लागू है l पर्वतीय क्षेत्र के जिलों में सन् 1960 में बना “कुमाऊं जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम” (कुजा एक्ट) लागू है l इस तरह राज्य के मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र  के लिए अलग-अलग भू-सुधार कानून अब भी चलन में हैं, जिन्हें पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हिसाब से तब की परिस्थितियों के अनुरूप बनाया था l   
सन् 1865 में अंग्रेजों ने वन विभाग महकमें का गठन कर क्षेत्र के वनों को सरकारी वन घोषित कर दिया था l  इससे यहाँ की जनता में उपजे असंतोष के बाद अंग्रेजों ने संयुक्त प्रांत में अपने अधीन के पर्वतीय क्षेत्र के लिये सन् 1874 में “शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” बनाया था l इसके तहत पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को एक विशेष श्रेणी देकर कई सहूलियतें भी दी जाती थी l सन् 1931 में लागू “ पंचायती वन नियामावली” को भी अंग्रेजों ने सन् 1927 में बन चुके वन कानून से बाहर “शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” के अधीन रखा जिसके कारण हमारी वन पचायतें वन कानून के दायरे से बाहर रही l इसके अलावा सरकारी वनों से गाँव वालों को वर्ष में एक पेड़ “हक” के रूप में दिया गया l
उपरोक्त से पूर्व सन् 1893 में अंग्रेजों ने बेनाप बंजर भूमि को “रक्षित वन भूमि” घोषित करने के लिये एक शासनादेश जारी किया था, मगर किसानो के भारी विरोध के बाद उन्हें एक नया कानून “गवर्नमेंट ग्रांट्स एक्ट 1895” को अस्तित्व में लाना पड़ा था, जिसके तहत कमिश्नर को बेनाप भूमि को पट्टे पर आवंटित करने का अधिकार दिया गया l इसी तरह सन् 1911 के वन बंदोबस्त के बाद किसानो द्वारा विरोध स्वरूप सरकारी वनों को लगातार आग के हवाले करने के कारण, विरोध को कम करने के लिये अंग्रेजों को पर्वतीय अंचल में वन पंचायतों का गठन करने को मजबूर होना पड़ा था l
शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट के तहत ही सन् 1948 में इस क्षेत्र के लिए “कुमाऊं नयाबाद एंड वेस्ट लैंड एक्ट” लाया गया, जिसके तहत तब तक बेनाप भूमि में विस्तारित हो चुकी आबादी और कृषि क्षेत्र को कानूनी मान्यता दी गयी l यह एक्ट सन् 1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने निरस्त कर दिया और इसकी जगह गवर्नमेंट ग्रांट्स एक्ट 1895 लागू कर जिलाधिकारियों को बेनाप भूमि के पट्टे करने के अधिकार दे दिये गए एवं पट्टे पर दी गयी भूमि पर स्वामित्व राज्य सरकार का ही रहा l अंतिम बदोबस्त के उपरान्त सन् 1964 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने “शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” को समाप्त कर दिया और बाद में सन् 1976 में नई वन पंचायत नियमावली लाकर वन पंचायतों को सन् 1927 के वन कानून के अंतर्गत ला दिया l
आजादी के बाद हुए एक मात्र बंदोबस्त के बीच सन् 1960 में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने तत्कालीन 9 पर्वतीय जिलों के लिए अलग से “कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून (कुजा एक्ट) बनाकर लागू कर दिया था l उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून में पंचायतों को बेनाप–बंजर–परती–चारागाह–पनघट–पोखर–तालाब–नदी आदि जमीनों के प्रबंध व वितरण का अधिकार दिया गया था l यह अधिकार देश के एनी अन्य राज्यों में भी पंचायतो को हासिल हैं, ये जमीने पंचायतों के नाम दर्ज होती हैं और ग्राम पंचायतों की “भूमि प्रबंध कमेटी” के माध्यम से इस प्रकार की भूमि का प्रबंध और वितरण करती है l
मगर तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा कुजा एक्ट से इस प्रावधान को साजिशन हटा दिया गया और हमारी पंचायतों को इस भूमि के प्रबंध और वितरण का अधिकार नहीं दिया गया, नतीजे के तौर पर इन पचास वर्षों में जहाँ अन्य राज्यों में कृषि के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ, वहीं “कुजा एक्ट” के माध्यम से इन पर्वतीय जिलों में कृषि क्षेत्र के विस्तार पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने के साथ ही, इसकी भविष्य की संभावना की भी पूर्णत: ह्त्या कर दी गयी l यही नहीं स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, डाकघर, क्रीडास्थल, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा संस्थान, पंचायत भवन, सड़कों   आदि के लिए किसानों की नाप भूमि निशुल्क सरकार के खाते में स्थानांतरित करने की शर्तें लगा दी गयी l यह ऐसी स्थिति थी कि जिन निर्वाचित सरकारों ने भूमिहीन-आवासहीन और गरीब किसानों को निशुल्क जमीनें बांटनी थी, वही सरकारें विकास की कीमत वसूली के रूप में गरीब किसानों की जमीनें निशुल्क लेकर उन्हें भूमिहीन बनाती गयी और पहाड़ के कृषि क्षेत्र को लगातार घटाते गयी l
सन् 2000 के आकडों पर नजर डालने से पता चलता है कि उत्तराखण्ड राज्य की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी l इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से उपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी l इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,22 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी, यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग ! बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी l उपरोक्त आँकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग  12 % किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है और बची 88 % कृषक आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुँच चुकी है l
राज्य में एक नया भू सुधार कानून बनाने की मांग हम समय समय पर लगातार उठाते आये हैं l भयानक भूमि संकट से के मुहाने पर खड़े इस राज्य में कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग (आर जोन घोषित करने पर) पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने, कृषि क्षेत्र के विस्तार के लिए भूमि चिन्हित कर कम से कम 40 % भूमि कृषि क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखने और सीलिंग की सीमा को घटाकर उपरोक्त भूमि असंतुलन को ठीक करने की जरुरत है l इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर प्रदेश में बाहरी राज्य के लोगो के कृषि भूमि भूमि खरीदने पर पूर्णत: रोक लगाने की जरुरत है, नये भूमि सुधार कानून में इन बुनियादी सवालों को प्रमुखता मिलनी चाहिए l
मगर वस्तुस्थिति यह है कि राज्य बनने के बाद यहाँ सत्तासीन हुई भाजपा-काँग्रेस की सरकारें कॉर्पोरेट घरानों, बड़े पूंजीपतियों, भू-माफियाओं व बिल्डरों के हित में एक के बाद एक भू-अध्यादेश तो लाती रही मगर राज्य की 75 % ग्रामीण आबादी की खुशहाली के लिए नया भूमि सुधार कानून उनके एजेंडे में कभी भी नहीं आया l जन विरोधी कुजा एक्ट का खात्मा कर पुरे राज्य के लिए एक नया भूमि सुधार कानून लाना किसी भी जन सरोकारी राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी, पर लगता है उत्तराखण्ड में बनी अब तक की किसी भी दल की  सरकार के एजेंडे में राज्य के आम आदमी को कम भू-माफिया और बिल्डर तथा पूंजीपतियों के हितों को ज्यादा तरजीह दी जाती रही है, तभी तो राज्य गठन के 12 सालों में राज्य का कृषि क्षेत्र दिन पर दिन कम होता जा रहा है और हमारी सरकारें  विकास के ढोल पीटे  जा रही है l

(साभार: समानान्तर से श्री पुरुषोत्तम शर्मा जी का लेख, शर्मा जी किसान महासभा, उत्तराखण्ड के प्रभारी हैं तथा आप कई किसान आन्दोलनों में भाग ले चुके हैं )

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