बुधवार, 9 अप्रैल 2014

उत्तराखंड के बाज़ीगर अधिकारी बने, सिडकुल के सौदागर

शिव प्रसाद सती
देहरादून : उत्तराखंड में जमीन की खरीद-फ रोख्त ने सबसे बड़े धंधे का रूप ले लिया है। गांवों से लेकर शहरों तक जमीन के धंधेबाजों का एक पूरा नेटवर्क उत्तराखंड बनने के बाद तैयार हो गया। यूं तो जमीन खरीदने और बेचने में बिचौलिया बनने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन जब से प्रभावशाली लोग इसमें घुसे हैं तब से इस धंधे का रूप भी बदल गया है और चरित्र भी। इन प्रभावशाली लोगों में सत्ता के गलियारों में खासा असर रखने वाले नेताओं से लेकर सरकार के आला अफसर तक शामिल हैं। प्रभावशाली लोगों के इस धंधे पर हावी हो जाने से इस धंधे ने जमीन की लूटमार का रूप ले लिया है। किसानों की भूमि पर डाकाजनी करने वाले इस वर्ग के पास चूंकि सत्ता की ताकत है, इसलिए जबरन जमीन की खरीद से लेकर जमीनों को विवाद में उलझाकर फि र उसे नीलाम के भाव खरीदने तक सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। बड़े-बड़े अफसरों के इस खेल में होने के कारण कई बार नाजायज रूप से पुलिस और प्रशासन की ताकत के इस्तेमाल से भी किसानों को जमीन बेचने के लिए बाध्य किया जाता है। कई बार तो घूस में एक-दो प्लाट देने का लालच देकर प्रभावशाली अफ सरों को जमीन की जबरिया खरीद में शामिल किया जाता है। इस धंधे की जड़ें इतनी गहरी और फैली हुई हैं कि सत्ता की शायद ही कोई शक्तिपीठ हो जहां ये जड़ें न पहुंची हों। अस्सी के दशक के बाद देहरादून, धनोल्टी, नैनीताल, मसूरी, हल्द्वानी समेत कई स्थानों पर महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अफ सरों ने अपने प्रभाव से जमीन हथियाना शुरू कर दिया था। राजधानी में ही सैकड़ों बीघा जमीन रखने वालों की अच्छी खासी तादाद है। नेताओं और अफ सरों के खुद भूमि की लूटमार में शामिल होने की घटना ने भू-माफि या को निद्र्वंद्व और निर्भीक बना दिया है। राज्य बनने के बाद यह लूट न केवल तेज हुई बल्कि भू-दस्यु बेलगाम हो गए। सरकारी स्तर पर ऐसा कोई प्रयास हाल के वर्षों में नजर नहीं आया जो बिचौलियों और बिल्डरों से किसानों व उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करता हो या इस पूरे कारोबार को पारदर्शी बनाने की इच्छा को बताता हो। उल्टे सरकार के कुछ पैसों ने किसानों को अपनी जमीनें औने-पौने दामों में भू-माफि या को बेचने के लिए बाध्य किया।
   देहरादून-मसूरी रोड पर सरकार ने किसानों की 18000 नाली जमीन पर कब्जा कर लिया। यह तथ्य भी इसी कड़वे सच को उजागर करता है कि जमीन की लूट में प्रभावशाली लोग शामिल हैं। भूमि की खरीद-फ रोख्त के लिए बनाया गया ढीला-ढाला कानून भी इसे पुष्ट करता है। यह तब है जब जमीन के इस अरबों के कारोबार मेंसबसे ज्यादा नंबर दो का पैसा लगा हुआ है। सत्ता में बैठा शायद ही कोई सफेदपोश या नौकरशाह होगा जिसका उत्तराखंड में कहीं न कहीं प्लाट नहीं होगा। कई नौकरशाहों ने तो उत्तरकाशी, चंबा, मसूरी, चकराता में बगीचे तक बना लिए हैं। देहरादून में हर नौकरशाह की जमीन है। सामाजिक सेवा के नाम पर कौडिय़ों के भाव सरकारी जमीनों की जमकर लूट खसोट हुई। आज हालात यह हैं कि सरकार को अपने महकमों के भवन बनाने के लिए जमीन नहीं मिल रही। जो जमीनें प्राइम लोकेशन में थीं, उन्हें रसूखदारों और भू माफि या की सांठगांठ से पहले ही ठिकाने लगा दिया गया। ऐसे में यह पड़ताल का विषय तो है कि आखिर इस कारोबार की जड़ें कहां और किस हद तक फैली हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो पैसे के लिए राज्य की हरियाली पर कंक्रीट का साम्राज्य खड़ा कर देना चाहते हैं। आखिर प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है कि अरबों रुपये के इस कारोबार में कौन-कौन शामिल है और इसके लिए अकूत धन कहां से आ रहा है। आखिर पिछले 14 साल से सूबे की सरकारों को यह बात क्यों नहीं समझ आ रही है कि उत्तराखंड हिमालयी और सीमांत राज्य है, यहां उत्तर-पूर्वी राज्यों सरीखे संकट पैदा न हों, इसके लिए जरूरी है उन लोगों के लिए पैरों के नीचे जमीन बची रहे, जिन्होंने सदियों प्रकृति से जूझते हुए इन बीहड़ पहाड़ों और मैदानों को सरसब्ज और दर्शनीय बनाया है। इसके लिए सरकार को सर्वोच्च प्राथमिकता से सोचना होगा।
   राज्य में जमीनों की लूटमार इन 14 सालों में राजनेता ब्यूरोक्रेट व भू-माफियाओं के लिए सोने पर सुहागा धंधा जैसा काम उत्तराखण्ड में हो रहा है जबकि सिडकुल का काम राज्य में सवालिया निशान खड़ा हो चला है जबकि बताया जा रहा है कि दून स्क्वायर के नाम से सहस्त्रधारा रोड पर प्रोजेक्ट होने की बात की पुष्टि विभाग द्वारा की गई है क्या यह सिडकुल के काले कारनामों से बाहरी भूमाफिया उत्तराखण्ड में सरकारी जमीनों पर नजर गडाए बैठे है देहरादून की सड़कों पर भी दून स्क्वायर के नाम से बड़े बड़े होल्डिंग सजे है जबकि सिडकुल इस बात को नकार रहा है कि यह कॉमर्शियल हब के लिए ही है शंखनाद संवाददाता द्वारा जब दून स्थित आईटी पार्क का जायजा लिया गया तो एक गाड़ी में ही दून स्क्वायर के नाम से ही फ्लेट की बुकिंग जारी है जब संवाददाता ने सुपरटैक के उत्तराखण्ड प्रभारी अनिल शर्मा से बातचीत की तो उनका साफ कहना था कि हम काई भी आवासीय फ्लेट सिडकुल में नहीं बना रहे है
   सूत्रों को पता है कि इस पर राज्य के एक प्रमुख सचिव का दबाव है देखना यह है कि राज्य के मुखिया इस राजनीतिक माहौल में सिडकुल के इस भ्रष्ट ब्यूरोके्रट पर कार्यवाही करते है कि नहीं जबकि राज्य के एक आद्योगिक क्षेत्र को बढ़ावा देना और स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराना सिडकुल की जिम्मेदारी भी है लेकिन जिस तरह सिडकुल में जमीनों के नाम पर मोटा खेल खेला जा रहा है इसको लेकर राज्य सरकार और प्रदेश के मुखिया क्यों मौन है यह सवाल अभी सवालों के घेरे में है शंखनाद टीम द्वारा आरटीआई से पता चला है कि देहरादून के आईटी पार्क स्थित 16692.05 वर्ग भूमि कॉमर्शियल हब के लिए सुपर टैक लि. को दी गई है जबकि सुपर टैक ने 13/02/2014 को एक दैनिक समाचार पत्र में विज्ञापन देकर दून स्क्वायर में स्टूडियो अपार्टमेंट कें नाम पर 25 लाख में बुक कराए जाने हेतु प्रकाशित किया गया था लेकिन सिडकुल द्वारा सुपर टैक को दिए गए पत्र के जबाव में कहा गया है कि आप द्वारा विकसित किए जाने वाले कॉमर्शियल हब में किसी प्रकार की स्टूडियों अपार्टमेंट का कोई प्रावधान नहीं है जबकि सिडकुल द्वारा 17 फरवरी 2014 को दिए गए पत्र के जबाव में यह साफ लिखा गया था कि आप ने ऐसा विज्ञापन क्यों प्रकाशित करवाया था जबकि सिडकुल ने यह भी कहा था कि लीज डीड व डाक्यूमेंट के उल्लंघन के क्रम में सिडकुल द्वारा सुपर टैक पर कार्यवाही करने की बात कही गई थी। लेकिन डेढ माह बीत जाने के बाद भी सिडकुल द्वारा कोई कानूनी कार्रवाही न करना इस बात की पुष्ठि करता है कि सिड$कुल और सुपर टैक के मिली भगत से प्रदेश सरकार की जमीनों को सस्ते दामों पर कॉमर्शियल हब के रूप में आवासीय फ्लेट बनाकर बेचने की योजना सुपर टैक द्वारा अपने द्वारा दिए गए विज्ञापन अपनी मंशा साफ कर दी है लेकिन सिडकुल और राज्य सरकार के अधिकारी और ब्यूरोक्रेटों की मिलीभगत से सुपर टैक प्रदेश में कई प्रोजेक्ट उधमसिंह नगर हरिद्वार और देहरादून में चला रहे हैं राज्य की सरकारी जमीनों को जिस तरह से बंदरबाट किया जा रहा है उस पर सुपर टैक द्वारा उनकी मंशा और नीयत साफ हो गई है कि राज्य में सरकारी भूमि को कॉमर्शियल हब के रूप में लेकर आवासीय फ्लेटों को बनाकर बेचा जाना मोटा कमाई का धंधा हो सकता है लेकिन सिडकुल और सरकार की क्या जिम्मेदारी बनती है यह तब है जब जमीन के इस अरबों के कारोबार में सबसे ज्यादा नंबर दो का पैसा लगा हुआ है। सत्ता में बैठा शायद ही कोई सफेदपोश या नौकरशाह होगा जिसका उत्तराखंड में कहीं न कहीं प्लाट नहीं होगा। कई नौकरशाहों ने तो उत्तरकाशी, चंबा, मसूरी, चकराता में बगीचे तक बना लिए हैं। देहरादून में हर नौकरशाह की जमीन है।           
    सामाजिक सेवा के नाम पर कौडिय़ों के भाव सरकारी जमीनों की जमकर लूट खसोट हुई। आज हालात यह हैं कि सरकार को अपने महकमों के भवन बनाने के लिए जमीन नहीं मिल रही। जो जमीनें प्राइम लोकेशन में थीं, उन्हें रसूखदारों और भू माफि या की सांठगांठ से पहले ही ठिकाने लगा दिया गया। ऐसे में यह पड़ताल का विषय तो है कि आखिर इस कारोबार की जड़ें कहां और किस हद तक फैली हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो पैसे के लिए राज्य की हरियाली पर कंक्रीट का साम्राज्य खड़ा कर देना चाहते हैं। आखिर प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है कि अरबों रुपये के इस कारोबार में कौन-कौन शामिल है और इसके लिए अकूत धन कहां से आ रहा है। आखिर पिछले 14 साल से सूबे की सरकारों को यह बात क्यों नहीं समझ आ रही है कि उत्तराखंड हिमालयी और सीमांत राज्य है, यहां उत्तर-पूर्वी राज्यों सरीखे संकट पैदा न हों, इसके लिए जरूरी है उन लोगों के लिए पैरों के नीचे जमीन बची रहे, जिन्होंने सदियों प्रकृति से जूझते हुए इन बीहड़ पहाड़ों और मैदानों को सरसब्ज और दर्शनीय बनाया है। इसके लिए सरकार को सर्वोच्च प्राथमिकता से सोचना होगा।
(लेखक उत्तराखंड शंखनाद के संपादक है)

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