राजेन्द्र जोशी
देहरादून: टिहरी संसदीय सीट पर भाजपा से रानी राज्य लक्ष्मी है, तो दूसरी ओर राजनीति के पुरोधा रहे हेमवती नंदन बहुगुणा नाती साकेत बहुगुणा हैं। परिवारवाद और राजशाही के मध्य छिड़ी इस जंग में कौन मैदान मारेगा यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन यह बात भी ख़ास है कि जहाँ परिवारवाद का बीड़ा उठाए साकेत पर अपने पिता के शासन काल में एक चर्चित अधिकारी के साथ मिलकर कई घोटालों करने के आरोप है तो वहीँ राजशाही की और से नुमाइंदगी कर रही महारानी का साफ़ व उजला चरित्र है, अब देखना यह होगा कि टिहरी लोकसभा के मतदाता घोटालेबाज को तरजीह देते हैं अथवा साफ़ छवि की महारानी को. इतना ही नहीं टिहरी लोकसभा सहित राज्यवासी महारानी के परिवार को भगवान बद्रीविशाल की प्रतिमूर्ति के रूप में देखते हैं तो वहीँ बहुगुणा परिवार के इस नई पीढ़ी के नेता को भ्रष्टाचारी और घोटालेबाज के रूप में देखते हैं.
यूं तो कई सियासी दलों ने अपने सेनापति उतारे हैं, लेकिन संसदीय चुनाव का
समर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटता रहा है। इस बार भाजपा को दुर्ग
महफूज रखने की चुनौती है, तो कांग्रेस को इस किले में सेंध लगाकर भेदना है।
कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को जहां किले की घेराबंदी कर खुद को
साबित करना है वहीं वहीं भा जपा को इस सीट को बरकरार रखने के लिए माला
राज्य लक्ष्मी को सीट बचाकर राज घराने के वर्चस्व को कायम रखने के लिए
संघर्ष करना है।
टिहरी लोक सभा सीट पर एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस ने उन्हीं उम्मीदवारों पर भरोसा किया है, जिन पर उसने 2012 के उप चुनाव में दांव खेला था। एक तरफ भाजपा की टिहरी राजशाही परिवार की माला राज्य लक्ष्मी हैं दूसरी तरफ कांग्रेस के साकेत बहुगुणा हैं। मैदान में यूकेडी, आम आदमी पार्टी और तीसरे मोर्चे ने भी अपने प्रत्याशी उतारे हैं। लेकिन मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होने के आसार हैं। टिहरी सीट का पारंपरिक मिजाज भा जपा को संतोष देने वाला है। इस सीट पर राजशाही परिवार का दिग्विजयी रथ आजादी के बाद से दौड़ता रहा है। इस दिग्विजयी रथ पर लगाम कसने का श्रेय भी विजय बहुगुणा को ही जाता है, जिनकी चुनौती के आगे रथ के पहिये थम गए थे। लोक सभा चुनाव में अजेय मानवेंद्र शाह के अवसान के बाद हुये उपचुनाव में भाजपा ने जब शाही परिवार के मनुजेन्द्र शाह को मैदान में उतारा तो वह काफी आश्वस्त थी। पर मनुजेन्द्र हार गए। उनकी पराजय से ठिठकी भाजपा ने नये विकल्प पर सोचना शुरू कर दिया। दो साल बाद आम चुनाव हुये तो बहुगुणा के सामने निशानेबाज़ जसपाल राणा थे। मगर चुनाव में राणा का निशाना चूक गया। टिहरी की जनता ने राणा को खारिज कर दिया था। इस चुनाव में कांग्रेस ने 14 में से 10 विधान सभा क्षेत्रों में भा जपा को पछाड़ा। पुरोला, गंगोत्री, प्रतापनगर, विकासनगर, रायपुर, देहरादून कैंट, चकराता, सहसपुर, राजपुर व मसूरी में बहुगुणा बढ़त में रहे जबकि भाजपा धनोल्टी, यमुनोत्री, घनसाली और टिहरी तक सिमट गई। राजशाही को बढ़त दिलाने वाला नरेन्द्र नगर भी परिसीमन के चलते पौड़ी गढ़वाल सीट का हिस्सा बन चुका था। लेकिन टिहरी पर कांग्रेस की यह बढ़त 2012 तक ही कायम रह पाई। एक बार फिर इतिहास ने अपने आप का दोहराया। सीएम बनने के बाद बहुगुणा ने सीट खाली की। साथ ही अपने बेटे साकेत बहुगुणा को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया। मगर उनके इस फैसले पर फाइनल मुहर तो जनता की अदालत में लगनी थी। उधर, दूध की जली भाजपा फिर राजशाही परिवार के दरवाजे पर पहुंची। समर में उतरे दोनों योद्धाओं में कुछ बातें ''कॉमन'' थी। दोनों को राजनीति विरासत में मिली। लेकिन मुख्य धारा की राजनीति में दोनों ही चेहरे नये थे। उपचुनाव हुआ जिसमें साकेत साफ़ हो गए । चुनाव में कांग्रेस पुरोला, गंगोत्री, धनोल्टी और चकराता में ही बढ़त बना सकी। जबकि उपचुनाव से पहले यही कांग्रेस विधान सभा चुनाव में भा जपा को कड़ी टक्कर दे चुकी थी। उसने गंगोत्री, प्रताप नगर, रायपुर, चकराता, राजपुर व विकासनगर सीटें जीतीं लेकिन उपचुनाव में इनमें से कुछ सीटें गंवा दी। आंकड़ों की रोशनी में जीत-हार के ये समीकरण यही बयान कर रहे हैं कि कभी भाजपा का पलड़ा भारी रहा तो कभी कांग्रेस का।
टिहरी लोक सभा सीट पर एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस ने उन्हीं उम्मीदवारों पर भरोसा किया है, जिन पर उसने 2012 के उप चुनाव में दांव खेला था। एक तरफ भाजपा की टिहरी राजशाही परिवार की माला राज्य लक्ष्मी हैं दूसरी तरफ कांग्रेस के साकेत बहुगुणा हैं। मैदान में यूकेडी, आम आदमी पार्टी और तीसरे मोर्चे ने भी अपने प्रत्याशी उतारे हैं। लेकिन मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होने के आसार हैं। टिहरी सीट का पारंपरिक मिजाज भा जपा को संतोष देने वाला है। इस सीट पर राजशाही परिवार का दिग्विजयी रथ आजादी के बाद से दौड़ता रहा है। इस दिग्विजयी रथ पर लगाम कसने का श्रेय भी विजय बहुगुणा को ही जाता है, जिनकी चुनौती के आगे रथ के पहिये थम गए थे। लोक सभा चुनाव में अजेय मानवेंद्र शाह के अवसान के बाद हुये उपचुनाव में भाजपा ने जब शाही परिवार के मनुजेन्द्र शाह को मैदान में उतारा तो वह काफी आश्वस्त थी। पर मनुजेन्द्र हार गए। उनकी पराजय से ठिठकी भाजपा ने नये विकल्प पर सोचना शुरू कर दिया। दो साल बाद आम चुनाव हुये तो बहुगुणा के सामने निशानेबाज़ जसपाल राणा थे। मगर चुनाव में राणा का निशाना चूक गया। टिहरी की जनता ने राणा को खारिज कर दिया था। इस चुनाव में कांग्रेस ने 14 में से 10 विधान सभा क्षेत्रों में भा जपा को पछाड़ा। पुरोला, गंगोत्री, प्रतापनगर, विकासनगर, रायपुर, देहरादून कैंट, चकराता, सहसपुर, राजपुर व मसूरी में बहुगुणा बढ़त में रहे जबकि भाजपा धनोल्टी, यमुनोत्री, घनसाली और टिहरी तक सिमट गई। राजशाही को बढ़त दिलाने वाला नरेन्द्र नगर भी परिसीमन के चलते पौड़ी गढ़वाल सीट का हिस्सा बन चुका था। लेकिन टिहरी पर कांग्रेस की यह बढ़त 2012 तक ही कायम रह पाई। एक बार फिर इतिहास ने अपने आप का दोहराया। सीएम बनने के बाद बहुगुणा ने सीट खाली की। साथ ही अपने बेटे साकेत बहुगुणा को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया। मगर उनके इस फैसले पर फाइनल मुहर तो जनता की अदालत में लगनी थी। उधर, दूध की जली भाजपा फिर राजशाही परिवार के दरवाजे पर पहुंची। समर में उतरे दोनों योद्धाओं में कुछ बातें ''कॉमन'' थी। दोनों को राजनीति विरासत में मिली। लेकिन मुख्य धारा की राजनीति में दोनों ही चेहरे नये थे। उपचुनाव हुआ जिसमें साकेत साफ़ हो गए । चुनाव में कांग्रेस पुरोला, गंगोत्री, धनोल्टी और चकराता में ही बढ़त बना सकी। जबकि उपचुनाव से पहले यही कांग्रेस विधान सभा चुनाव में भा जपा को कड़ी टक्कर दे चुकी थी। उसने गंगोत्री, प्रताप नगर, रायपुर, चकराता, राजपुर व विकासनगर सीटें जीतीं लेकिन उपचुनाव में इनमें से कुछ सीटें गंवा दी। आंकड़ों की रोशनी में जीत-हार के ये समीकरण यही बयान कर रहे हैं कि कभी भाजपा का पलड़ा भारी रहा तो कभी कांग्रेस का।
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