बुधवार, 7 मई 2014

राष्ट्रीय सोच के साथ हमेशा रहा है उत्तराखण्डी

चुनाव विशेष

राजेन्द्र जोशी
देहरादून । उत्तराखण्ड राज्य में क्या हरीश रावत कांग्रेस की डूबती नैया को बचा पाने में सफल हो पायेंगे यह सवाल लाख टके का हो गया है। क्योंकि रावत के इतनी मेहनत करने के बावजूद पार्टी में चुनाव के दौरान शामिल किये गये कांग्रेस के बागी नेता न तो संगठन के नेताओं से सामंजस्य ही बैठा पाये और न ही स्थापित नेताओं से। वहीं दूसरी ओर भाजपा में भी अंन्दरूनी खींचतान तो जरूर आ रही है लेकिन मोदी के नाम पर भाजपाईयों की दिखावटी एकता भाजपा को प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ मजबूत भी कर रही है।  
  उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजने के बाद प्रदेश में कांग्रेस व भाजपा नेताओं में वो अफरातफरी मची कि अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर किसी नेता ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा तो किसी ने भाजपा छोड़ कांग्रेस का। यह सिलसिला काफी समय तक प्रदेश में इस चुनाव के दौरान देखने को मिला। जहां कांग्रेस छोड़ भाजपा की शरण में सतपाल महाराज गये तो वहीं कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष रामशरण नौटियाल जैसे लोग भी कांग्रेस से भाजपा में चले गये लेकिन भाजपा से कुछ छुटभैये नेताओं को छोड़ कोई कद्दावर नेता कांग्रेस की नाव में सवार नहीं हुआ। हां कांग्रेस के ही कुछ बागी जरूर कांग्रेस में लौट आये जो पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस से बागी बनकर कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़कर भाजपा को लाभ दिला गये थे। अब यही नेता इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने परेशानी का सबब बन कर एक बार फिर खड़े हो गये हैं। पार्टी ने इनको यह सोचकर अपने में शामिल किया था कि इनके कांग्रेस में आने से कोई लाभ उनको मिल सकेगा लेकिन इनके पार्टी में आने से ये तो स्थापित कांग्रेसी नेताओं से ही सामंजस्य ही बैठा पाये आरै नही संगठन के लोगों से। कांग्रेस के ही लोगों का कहना है कि इनके पुनः कांग्रेस में शामिल होने पर न तो ये कांग्रेस के खांटी नेताओं का ही विश्वास अर्जित कर पाये और न ही इन नेताओं पर ऐसे नेताओं को विश्वास रहा। यही कारण रहा कि खांटी नेता इनके पुनः प्रवेश से नाराज तक नजर आये।
   वहीं लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों का चयन भी प्रमुख नुकसानदेह माना जा रहा है। कांग्रेस के सूत्रों का कहना है यदि रेणुका रावत व प्रदीप टम्टा को छोड़ दिया जाय तो प्रदेश में भ्रष्टाचार का पर्याय रहे विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा पर तो कांग्रेस खुद ही दो फाड़ नजर आती है। कांग्रेस के कई कद्दावर नेता साकेत को टिकट देने के कारण ही कांग्रेस से भाग खड़े हुए। वहीं नैनीताल सीट पर केसीसिंह बाबा की पांच साल तक क्षेत्र में नामौजूदगी का लाभ भी भाजपा प्रत्याशी भगत सिंह कोश्यारी को मिलता नजर आ रहा है। बाकी प्रदीप टम्टा व रेणुका रावत अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। हां रेणुका रावत को अपने मुख्यमंत्री पति का जरूर लाभ भी मिलता नजर आ रहा है। हरिद्वार में कांग्रेस के छत्रपों के सामने अपना किला बचाने का लक्ष्य है तो भाजपा के निशंक भी किला फतह करने की लड़ाई लड़ रहे हैं।   
    वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी में भी आपसी खींचतान कोई कांग्रेस से कम नजर नहीं आ रही है। भाजपा नेताओं को यदि संघ का खौफ न होता तो इनकी स्थिति कांग्रेस से भी बदतर होती लेकिन संघ के डंडे के आगे सभी नेता नतमस्तक हैं भले ही भाजपा में अंदरूनी लड़ाई चरम पर है लेकिन मोदी के नाम पर सभी भाजपायी एक होकर वोट मांग रहे हैं। एक बात का लाभ इन चुनावों में भाजपा को जरूर मिलता नजर आ रहा है वह यह है कि भाजपा ने प्रत्याशी चयन कांग्रेस के प्रत्याशी चयन से एक माह पहले कर चुनावी मैदान में कांग्रेस को जरूर पछाड़ा है।
   वहीं यह बात काबिलेगौर है कि उत्तराखण्ड का जनमानस  हमेंशा राष्ट्रीय राजनीति के साथ कदमताल मिलाकर चलते रहे हैं। 2009 में भी इसी कारण पहाड़ी राज्य के लोगों ने पांचों सीटें कांगे्रस की झोली में डाल दी थी। इस बार पूरे देश में मंहगाई व भ्रष्टाचार के खिलाफ और नरेन्द्र मोदी के पक्ष में जबरदस्त लहर चल रही है। ऐसे में उत्तराखण्ड की पांचों लोकसभा सीटें यदि भाजपा के पाले में चली जांय तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  

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