रविवार, 12 अगस्त 2012

और............... अब आपदा पर राजनीति

राजेन्द्र जोशी
देहरादून  ।  उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाके जिनकी नियती बन चुका है आपदा, इन इलाकों में कब,कहां और कैसे प्रकृति इनसे रूठे और इसके बाद अपना ÿोध दिखाये कहा नहीं जा सकता, लेकिन एक बात तो जरूर है इन पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लोगों पर आपदा के बाद जो राजनीति होती है उससे तो यह कहीं भी नहीं लगता कि नेताओं में इनके प्रति कहीं भी कुछ संवेदना होगी। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल जहां उनके  घावों पर मरहम लगाने का नाटक करता है तो विपक्षी दल उन हरे घावों को कुरेदने का, दोनों ही दलों का सिर्फ एक ही मकसद होता है कि चुनाव तक उनके घावों पर नयी पपड़ी न जमने पाये। उनको लगता है कि यदि पपड़ी जम गयी तो वे कैसे और किस मुद्दे पर उनसे वोटों की राजनीति करेंगे। ठीक यही हाल इस वक्त उत्तरकाशी के आपदा प्रभावित क्षेत्र के लोगों का है। जहां कांग्रेस क्षेत्र के लोगों को यह कहकर बहला रही है कि प्रदेश सरकार उनके साथ न्याय कर रही है जबकि भाजपा के लोगों का कहना है कि कांग्रेस की केन्द्र में सरकार के होते हुए भी वह प्रभावित क्षेत्रों के लिए आशातीत व्यवस्था नहीं कर पायी है। दोनों ही दलों के कार्यकर्ता प्रभावित क्षेत्रों के लिए लोगों के फटे पुराने कपड़े जूते इत्यादि इकठ्ठा कर वाहवाही लूटने में लगे हैं तो कई नेता इस कबाड़ भरे वाहनों को हरी झंडी दिखाने तथा फोटो खिंचवाने को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यहां यह बात भी दीगर है कि पर्वतीय क्षेत्र के आत्मसम्मानी लोगों ने जब 1992 में उत्तरकाशी भूकम्प के दौरान इस तरह के कपड़ों व जूतों को लाने वालों के मुंह पर ही मार दिया और कहा कि वे उनकी गैरत को ललकार रहे हैं उनका कहना था कि उन्होने अपने परिजनों अपने नाते रिश्तेदारों को भले ही खो दिया है लेकिन उनका आत्मसम्मान अभी भी जीवित है और जीते जी वे कभी भी इस तरह से खैरात में बंटने वाले कपड़े और सामान को नहीं ले सकते, ठीक इसी तरह इस बार भी प्रभावित क्षेत्रों में देखा जा रहा है। लेकिन राजनीति तो राज भी करती है और नीति निर्धारण भी सो सब कुछ गवां चुकने के बाद भी इनके हिमालय जैसे आत्मसंम्मान को रखने वाले सुदूर अंचलों के ये सीधे-साधे पहाड़ी लोगों के गैरत को राजनीति करने वाले नहीं डिगा पाये तो इसे इस क्षेत्र की विलक्षणता ही कहा जा सकता है जो कहीं और नहीं दिखायी देती। यहीं कारण है कि बार-बार प्रकृति की मार झेलने के बाद भी खड़े होने का इनका जज्बा आज भी कायम है। जहां तक सरकारी इमदाद की बात की जाये तो वह उंट के मुंह में जीरे के समान होती है या यूं कहें कि उन तक उतनी इमदाद नहीं पहुंच पाती जितनी पहुंचनी चाहिए शेष बीच में ही कहीं समा जाती है। बीते सालों में यदि उत्तरकाशी व चमोली को मिली सरकारी मदद को देखा जाये तो इतनी रकम में कई गांव नये बसाये जा सकते थे लेकिन यह पैसा किनके जेबों में भरा गया या यों कहें कि यह पैसा किन राजनेताओं की तिजोरियों की शोभा बढ़ा रहा है कहा नहीं जा सकता लेकिन मालूम सबको है। कभी-कभी लोग चुनाव से पहले बंटने वाले कम्बलों में आपदा राहत सामग्री की पहचान कर लेते हैं। सन् 1992 में आये भयावह भूकम्प के बाद से ही ऐसे कम्बल आपदा के समय राजनीतिक गोदामों में पहुंचा कर चुनावी वर्ष में बांटना शायद उत्तराखण्ड की नियती बन गयाी है।
 आगे भी आसमान में बादल दिखायी देंगे, आगें भी बादल फटेंगे और तबाही होगी और ठीक इसी तरह का मंजर होगा लेकिन तब और ही चेहरे होगंे जो इमदाद लेकर उन तक पहुंचेगे।  सवाल यह उठता है कि क्या लोग यूं ही जिन्दा दफन होते रहेंगे, क्या सरकारों के पास कोई ऐसी ठोस नीति नहीं है जो गंगा, यमुना,अलकनंदा तथा सरयू के इस प्रदेश के सूदूर अंचलों के लोगों के लिए ऐसी कोई ठोस नीति बनाये जो भविष्य में इस तरह की विभीषिका से बचा जा सके। इस पर वैज्ञानिकों का कहना है कि यह प्रकृति है और प्रकृति से मानव कभी भी टक्कर नहीं ले सकता हां उसके प्रभाव को कम जरूर कर सकता है। सरकारों को चाहिए कि वह राज्य के भीतर बहने वाली तमाम नदियों के किनारे कम से कम दो सौ फीट तक दोनों छोरों पर किसी को न बसने की इजाजत दे इतना ही नहीं सरकारों को चाहिए कि वह इन नदियों के दोनों छोरों पर सघन वृक्षारोपण कराये ताकि पानी के प्रभाव को नियंत्रित किया जा सके। वहीं उनका कहना है कि इन नदियों के तटों पर पार्क, घाट इत्यादि का निर्माण कराया जाय ताकि सर्दियों व गर्मियों के मौसम में लोग प्रकृति का आनन्द भी उठा सकें। काश यदि हो जाय तो हम बरसात को आपदा नहीं प्रकृति का वरदान कहेंगे। 

बुधवार, 8 अगस्त 2012

दो-दो अधिकारी, आठ गाड़ी, ढेरों कर्मचारी, फिर भी ईमानदारी

राजेन्द्र जोशी
देहरादून,  उत्तराखण्ड राज्य में जो मौज अधिकारी काट रहे हैं वो शायद कोई और नहीं एक - एक अधिकारी पर चार-चार विभाग और उतनी ही गाड़ियां। यानी एक अधिकारी और चार सवारी, इतना ही नहीं जिन अधिकारियों की बीबियां भी अधिकारी हैं उनकी तो और पौ बारह है, यानी दो अधिकारी और आठ सवारी। अब आप लोग सोचते होंगे भला इस छोटे से प्रदेष में इतनी गाड़ियों का ये अधिकारी क्या करते होंगे, तो हम बताते हैं आपको, दो अधिकारी दो सवारी तो अधिकारियों की सेवा में, दो सवारी परिवारों की सेवा में और दो सवारी घरेलू मेहमानों और किचन का सामान लाने वालों की सेवा में। गाडियां भी एक तरह की नहीं विभिन्न तरह की, पहाड़ जाना हो एसयूबी याने बोलेरो,स्कार्पियों आदि, मैदान में चलना हो तो एम्बेसेडर तो है ही अन्यथा सरकारी ठेकेदार से इनोवा आदि भी मंगायी जा सकती है। बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने के लिए अलग से गाड़ियां भी हैं सो अलग हैं। उदाहरण के लिए एक अधिकारी है जिनके पास तीन महत्वपूर्ण विभाग हैं और उनकी धर्मपत्नी के पास भी लगभग इतने ही विभाग, दोनों ही आईएएस हैं तीन गाड़ियां पत्नी के पास और तीन पति के पास के विभागों की इनके घर पर खड़ी रहती हैं।
एक तो राजधानी देहरादून की तंग सड़कें, उपर से सरकारी गाड़ियों का बोझ, साहब की गाड़ियों को यदि रेंग कर चलना पड़े तो समझो शामत आ गयी देहरादून की पब्लिक की। आरटीओ से लेकर पुलिस के सभी अधिकारी आ धमकते हैं रोड़ पर और फिर किस गरीब की शामत इनके हाथों आ जाये कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक और बात जिन्होने उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई सड़कों पर लड़ी वही उत्तराखण्डी आज उस सड़क से दूर गलियों से निकलने में ही अपनी भलाई समझ रहा है क्योंकि राज्य बनने के बाद इन चैड़ी सड़कों पर राज्य में आये अधिकारियों व उनको मिलने वाली गाड़ियों ने एकाधिकार जमा लिया है। ऐसे में यहां के लोग आखिर कहां और किस सड़क पर गाडियां चलायें उनके समझ में नहीं आ रहा है। दूसरा उत्तराखण्ड के सूदूरवर्ती अंचलों की सड़कों से इनका क्या लेना देना उन्हे तो यहां की सड़कों में एक भी गढ़ढा नहीं दिखायी देना चाहिए या यूं कहें कार में बैठे अधिकारी व उनकी धर्मपत्नी को गाड़ी में बैठे होने के बावजूद गाड़ी के चलते वक्त यह महसूस नहीं होना चाहिए कि वह देहरादून की सड़कों पर चल रहे हैं उन्हे इस बात से क्या लेना देना कि पहाड़ी मार्गो पर सड़कों पर गढढे हैं अथवा गढढों में सड़कें। इन्हे तो सचिवालय से टिहरी हाउस अथवा ऊषा कालोनी तक की सड़क मलाईदार चाहिए। 
   ये तो था कारों का मामला अब कर्मचारियों को ही देखिये गाड़ियों के हिसाब से कर्मचारी इन अधिकारियों की जी हूजूरी में लगे रहते हैं वहीं इतने ही और कर्मचारी जो इनके घरों में नौकर की तरह काम करते हैं। , भला इन्हे अपना निजी नौकर रखने से क्या फायदा जब सरकार ने आठ गाड़ियां आठ ड्राईवर और लगभग इतने ही नौकर दे जो रखे हैं इतना ही नहीं होमगार्ड के जवान तक इनके घरों में बर्तन साफ कर रहे हैं इसके बाद भी ये अधिकारी कहते हैं कि वे तो गंगा जल से भी ज्यादा पवित्र और  युधिष्ठर की तरह ईमानदार हैं

सोमवार, 6 अगस्त 2012

देवभूमि मीडिया: आपदा प्रबंध नहीं, खैरात के प्रबंधन में जुटे हुक्मर...

देवभूमि मीडिया: आपदा प्रबंध नहीं, खैरात के प्रबंधन में जुटे हुक्मर...: कैसा कहर प्राकृतिक या सरकारी आपदा प्रबंध नहीं, खैरात के प्रबंधन में जुटे हुक्मरान http://www.devbhoomimedia.com/component/k2/item/411-आप...

आपदा प्रबंध नहीं, खैरात के प्रबंधन में जुटे हुक्मरान

कैसा कहर प्राकृतिक या सरकारी
आपदा प्रबंध नहीं, खैरात के प्रबंधन में जुटे हुक्मरान

http://www.devbhoomimedia.com/component/k2/item/411-आपदा-प्रबंधन-नहीं,-खैरात-के-प्रबंध-में-जुटे-हुक्मरान
राजेन्द्र जोशी
देहरादून, । जब से धरती अस्तित्व में आयी, साल दर साल हिमालय के पर्यावरण में मानसून को बरसाने को मजबूर किया है। देश के बाकी हिस्सों में जहां हलक तक बूंद-बूंद के लिए तरसते हैं वहीं हिमालय में पूरे साल हरियाली का
मंजर होता है। जो बरसात तोहफे के रूप में पहाड़ों को सरसब्ज करती है। वहीं बरसात बिजली बनाने के लिए, खेतों को सींचने के लिए पानी तो देती है साथ ही, जो मिट्टी पहाड़ों से कटती है उसे रेत और पत्थर बना कर नदी के तटों में छोड़ जाती है। हमारे आशियानों को बनाने के लिए। प्रकृति के इसी तोहफे का इंतजार पिछले दो महीनांे से बड़ी बेसब्री से हो रहा था लेकिन आज कुदरत के इस तोहफे को हमें कहर कहना पड़ रहा है और सरकारी ल∂जों में ये प्राकृतिक आपदा है। सवाल है क्या सचमुच प्राकृतिक आपदा आयी है या नौकरशाहों या राजनेताओं की पिछले छह दशकों से सोई हुई जमात में प्रकृति के मार्ग में मानव जनित अवरोधक डाल कर स्वयं आपदा को न्यौता दिया है। बरसात हर साल आती है, अगले बरस भी आयेगी तो इसे प्राकृतिक आपदा कहा जाय  या फिर सरकार जनित आपदा।  पिछले चैबीस घंटों के दरमियान उŸारकाशी के आसमान में हाॅलीकाप्टर भी मंडराया है और जमीन पर लालबŸाी जड़ित गाडियां भी रंेग रही है। जनता को इस बात का अहसास करने लिए कि सरकार और सरकारी मशीनरी जागी हुई है आपदा का जायजा लेकर प्रबंध का स्टीमेंट बनाने के लिए। दूरभाद्दा पर देश के प्रधानमंत्री से भी बात हो रही है, दिल्ली से बड़ी खैरात भी लाई जा रही है। कुल मिलाकर सरकारी अमला आपदा के आगे जगा हुआ दिख रहा है। लेकिन इतिहास के पन्नों को जरा पलटिये तो ये नजारे कुछ नए नहीं हैं। बीते सालों में भी आपदा आई, बीते साल भी दर्जनों मौत हुई, हजारों लोग बेघर हुए, दर्जनों बस्तियां जमींदोज हुई, आसमान में हाॅलिकाप्टर भी मंडराये, दून से लेकर दिल्ली तक के हुक्मरानों ने हवा और जमीन से तबाही के मंजरों को देखा और करोड़ों रूपये के स्टीमेट तैयार कर खैरात भी उŸाराखंड पहुंची, लेकिन
अफसोस कि उस खैरात से उŸाराखंड के जिन प्रभावितों को मरहम लगाना था, देहरादून से सफर तय करके वो उनके उजडे़ आशियानों के पुर्नस्थापना के लिए एक ईंट तक भी नहीं पहुंचा पाई।
   आपदा के आगे जागी हुई सरकार, जागे हुए मुख्यमंत्री और उनके साथी। आज जागे हैं अहसास अच्छा लग रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या विजय बहुगुणा, आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य, प्रभारी मंत्री हरीश चंद्र दुर्गापाल, स्थानीय मंत्री प्रीतम पंवार और संसदीय सचिव विजयपाल सजवाण ने क्या जिंदगी में पहली बार बरसात को देखा है। माना कि मुख्यमंत्री का जन्म और यौवन उŸार प्रदेश के मैदानों में गुजरा है लेकिन टिहरी लोकसभा में आये हुए उन्हें करीब डेढ़ दशक भी तो हो गया है। विजयपाल सजवाण को तो तिवारी सरकार ने आपदा के प्रबंध के लिए इतना बेहतर माना कि उन्हें आपदा प्रबंधन का उपाध्यक्ष बना कर राज्य मंत्री का दर्जा दिया हुआ था। भारी भरकम महकमों के लिए एक बार कोपभवन तक जाने वाले आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य कि सिंचाई महकमे के लिए जो बरसात किसी वरदान से कम नहीं उन्होंने ना वरदान सहेजने का प्रबंध किया और ना आपदा से बचने का जुगाड़। प्रबंधन के नाम पर जिन तम्बुओं और छप्परों में लोग ठहरे हुए हैं वहां जिंदगी को देखिए.... रोटी तो क्या अभी तक कायदे से पीने का पानी भी मयस्सर नहीं है।
   आपदा ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रखा हुआ है। जैसे जैसे दिन आगे बढ़ेंगे प्रबंध को लेकर समाचार लिखे जायेंगे। लेकिन सवाल है कि हर साल आने वाली इस बरसात को हम कहर के बजाय वरदान बनाने की अगर चिंता करते तो आपदा
प्रबंधन मंत्रालय को सिर्फ बादल फटने से होने वाली हानि और पुल बहने के अलावा बाकि किसी भी नुकसान का ना जायजा करना पड़़ता और ना ही प्रबंध। आजादी से लेकर आज तक नदी-घाटी बचाओ के नाम पर चल रही विभिन्न परियोजनाओं, पर्यावरण और जलचर संरक्षण, विभिन्न विकास प्राधिकरणों और धर्मस्व और साहसिक पर्यटन के नाम पर जितनी करोड़ो-करोड़ की धनराशि आवंटित हुई है। उसमें से आधी भी अगर योजनाबद्ध  तरीके से खर्च होती तो नदियों और घाटियों में निर्मित बस्तियां व व्यवसायिक बाजारों को तटों से हटाकर कहीं और सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित किया जा सकता था, जिससे ना सिर्फ नदियों पर तटबंध और रमणीक पार्क व घाटों की स्थापना होती वरन आधा प्रदूद्दाण भी खुद खत्म हो जाता। लेकिन अफसोस सरकारी सरपरस्ती में गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक नदियों के तट कंकरीट के जंगलों से लगातार पट रहे हैं। और हर साल प्रकृति के इस वरदान के सामने खड़े होकर हम स्वयं आपदा को न्यौता दे रहे हैं।
  आपदा के प्रबंधन के लिए जो स्टीमेट बना कर खैरात का प्रबंध किया जा रहा है, अच्छा होगा अगर वो खैरात प्रभावितों के जख्मों को थोड़ा मरहम लगा पाये। लेकिन जागी हुई सरकार को जागृत तब माना जाय जब अगले बरस प्रकृति के इसी वरदान को हमें फिर से कहर लिखने के लिए मजबूर ना होना पड़े।



2010 की आपदा, मुआवजा आज तक नहीं
कब मिलेगा आपदाओं का मुआवजा
राजेन्द्र जोशी
देहरादून, । मां चंद्रबदनी के छांव स्थल का गांव नवाकोट। 75 साल के रिटायर्ड मास्टर शम्भुप्रसाद रतूड़ी की गोद में कागजों की पोथी, हाथ मां चंद्रबदनी मंदिर की ओर जोड़कर नजर आसमान पर, मन्नत सिर्फ एक, कि प्रकृति का कहर कभी ना बरपे। घर आने वाले हर अतिथि को शम्भुप्रसाद कागज की पोथियों को पढ़ाते हैं। साल 2010 की आपदा से घर का आंगन बह गया, मकान में दरारें पड़ी हुई हैं। किसी रात का भरोसा नहीं कि कब छत भरभरा कर गिर पड़े और वो नींद कहीं ऐसी ना हो जाय जिससे कभी जागना संभव नहीं। प्रकृति से रहम की भीख मांग रहे शम्भुप्रसाद को कागजों से आज भी उम्मीद है। हाथ मेंतब के सांसद व आज के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का पत्र, तत्कालीन आपदा प्रबंधन मंत्री खजान दास, जिलाधिकारी टिहरी, तहसीलदार जाखणीधार की रिपोर्ट के साथ और भी बहुत कुछ है। दस्तावेज ना सिर्फ आपदा की गवाही के है बल्कि उसके प्रबंध के लिए जो दिल्ली और देहरादून से करोड़ की खैरात पहाड़ों को चली थी उससे शम्भु प्रसाद को मिलने वाली मुआवजे की हकदारी और तरफदारी के भी हैं। 2010 से आज के दौर में विजय बहुगुणा ने सांसद से मुख्यमंत्री का सफर तय कर लिया लेकिन अफसोस कि उनके दस्तखतों की असमत अगर भाजपा सरकार के लिए गौण थी तो अब उनकी ही सरकार के लिए भी उनके दस्तख़तों की शायद कोई अस्मत नहीं है क्यों कि मुआवजा अब भी नहीं मिला। लेकिन शम्भुप्रसाद रतूडी को आज भी उम्मीद है कि मुख्यमंत्री के अपने दस्तखतों की कोई तो लाज होगी, पहाड़ के हर दूसरे गांव में ऐसे कई शम्भु प्रसाद कई मौजूद है और उनके हाथों में भी उम्मीद भरे चिट्ठों का पुलिंदा है।

देवभूमि मीडिया: 34 लोगों की मरने व 200 से अधिक घरों के बहने कई प...

देवभूमि मीडिया: 34 लोगों की मरने व 200 से अधिक घरों के बहने कई प...: देहरादून,(राजेन्द्र जोशी)।  शुक्रवार दोपहर उत्तरकाशी से लगभग 40 किलोमीटर उपर बरसू टाप पर बादल फटने के भटवाड़ी से लेकर डुण्डा तक भारी जन धन ...

34 लोगों की मरने व 200 से अधिक घरों के बहने कई पुलों के क्षतिग्रस्त होने की पुष्टि

देहरादून,(राजेन्द्र जोशी)।  शुक्रवार दोपहर उत्तरकाशी से लगभग 40 किलोमीटर उपर बरसू टाप पर बादल फटने के भटवाड़ी से लेकर डुण्डा तक भारी जन धन की हानि हुई  है। राज्य आपदा नियंत्रण केन्द्र से मिली जानकारी के अनुसार अब तक 34 लोगों की मरने व 200 से अधिक घरों के बहने सहित कई पुलों के क्षतिग्रस्त होने की पुष्टि हो चुकी है।
 जनपद उत्तरकाशी सहित कई स्थानों पर विगत रात्रि भारी बरसात से उत्पन्न स्थिति पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा स्वयं नजर रखे हुए हैं। उन्होंने सुबह आपदा मंत्री यशपाल आर्य के साथ हालात की समीक्षा की और जिला प्रशासन के अधिकारियों से जानकारी लेकर आवश्यक दिशा निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने प्रभावितों को तुरंत राहत पहुंचाना सुनिश्चित करने के निर्देश देते हुए कहा कि प्रभावितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाकर भोजन, दूध, पेयजल, कपड़े, दवाइयां आदि उपलब्ध करवाया जाए। शनिवार को मीडिया को जानकारी देते हुए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने बताया कि विगत मध्यरात्रि को अत्यधिक वर्षा से  भागीरथी नदी का जल स्तर खतरे के निशान से ऊपर चला गया था। रकाशी जिला प्रशासन ने त्वरित कार्यवाही करते हुए नदी किनारे रह रहे 200 परिवारों को अन्यत्र शिफ्ट कर उनके भोजन आदि की समुचित व्यवस्था की गई है। उन्होंने बताया कि
गंगोत्री व केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्गों पर जगह जगह भूस्खलन के कारण मार्ग बाधित होने सेयहां स्थिति सामान्य होने तक यात्रा पर रोक लगाने के निर्देश दिए गए हैं। जिला प्रशासन व स्थानीय आपदा प्रबंधन दल के साथ ही आईटीबीपी के जवान भी बचाव कार्य में जुटे हुए हैं। पीएसी भी राहत कार्यों के लिए भेज दी गई है। आवश्यकता पड़ने पर आपदा प्रबंधन की अतिरिक्त टीमें भेजी जाएंगी। बचाव कर्मी जी जान से लोगों को बचाने व राहत पहंुचाने में जुटे हुए हैं। गंगोरी में बचाव कार्य करते हुए तीन फायर कर्मी भी नदी में बह गए। आपदा से हुई क्षति की जानकारी देते हुए मुख्यमंत्री ने बताया कि 5 व्यक्ति गंगोरी में व 2 व्यक्ति डुण्डा में बहने की सूचना है। गंगोरी राष्ट्रीय राजमार्ग पर गंगोरी पुल बाढ़ से बह गया है व केदारनाथ को जोड़ने वाला तिलोथ पुल की दीवार क्षतिग्रस्त हो गई है, जिससे पुल को आवाजाही के लिए बंद कर दिया गया है। मनेरी भाली फेज 1 व फेज 2 को भी भारी क्षति हुई है।
   उत्तरकाशी में दर्जन से अधिक घर, वाहन बह गए हैं। गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित कई होटल एवं घरों के पुस्ते नदी में बह गए हैं।  सैंकड़ों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि बह गई है। गंगोरी में बना हुआ फायर स्टेशन भी क्षतिग्रस्त हुआ है। भटवाड़ी व मोरी में झूला पुल बहने की सूचना है। मुख्यमंत्री ने कहा कि फिलहाल सारा ध्यान राहत एवं बचाव कार्यों पर है। नुकसान का आंकलन शीघ्र ही कराया जाएगा। प्रभावितों को उचित मुआवजा दिया जाएगा। आवश्यकता होने पर केंद्रीय सरकार से भी मदद ली जाएगी। उन्होंने कहा कि मौसम विभाग द्वारा आगामी 48 घंटों में भारी वर्षा की चेतावनी दी गई है। नदी किनारे व संवेदनशील क्षेत्रों में रह रहे नागरिक भी सतर्क रहें व राहत व बचाव कार्यों में  प्रशासन का सहयोग करें। सरकार व प्रशासन तत्परता से कार्य कर रहा है और घबराने जैसी कोई बात नहीं है।
उधर राज्य आपात परिचालन केंद्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार शुक्रवार दोपहर एक बजे तक बादल फटने व भारी वर्षा के कारण 26 लोगों के बहने व 200 घरों के ढ़हने की सूचना है। सभी चार धाम यात्रा मार्ग बंद कर दिया गया है। राहत एवं बचाव कार्य जारी हैं।

बयान, बवंडर और निहितार्थ

राजेन्द्र जोशी
देहरादून : विधायक हरभजन सिंह चीमा के एक बयान को लेकर उत्तराखण्ड की राजनीति में एक भूचाल सा दिखायी दे रहा है कोई भी उनके इस बयान को पचा नहीं पा रहा है इतना ही नहीं उन्हे पहाड़ विरोधी तक करार दिया जा रहा है,लेकिन क्या किसी ने उनके इस बयान की गंभीरता अथवा उसके भीतर झांक कर देखा कि उन्होने कितना गलत व कितना सही कहा। हांलांकि अब बयान पर बवंडर मचता देख चीमा भी यह कहने लगे हैं कि वे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं और वे अपनी बात को ठीक से मीडिया से सामने नहीं रख पाये। लेकिन क्या इसमें भी कुछ सच है सच तो यह माना जा सकता है कि वे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन जो बयान उन्होने दिया उसमे ज्यादा पढ़ाई या लिखाई से क्या संबध यह समझ से परे है। लेकिन एक बात तो साफ है और इस बात को तमाम उन उत्तराखण्डियों को भी आत्मसात करनी होगी कि चीमा के बयान में कहीं भी कुछ गलत नहीं, हां राजनैतिक रूप से यह बयान जरूर किन्ही राजनैतिक दलों को बुरा लग सकता है वैसे उनके बयान को यदि गंभीरता से पढ़ा जाय तो उसमें कही भी कुछ गलत नहीं है उन्होने कहा कि ‘‘ पर्वतीय क्षेत्र से पलायन करके आ रहे लोगों के दबाव से जहां पहाड़ को नुकसान हो रहा है वहीं तराई क्षेत्रों पर भी इसका दबाव बढ़ रहा है। उन्होने समग्र विकास किये जाने की बात भी अपने बयान में कही है‘‘
 विधायक चीमा के कहने का क्या मंतव्य था लेकिन, यह कटु सत्य है कि पहाड़ के सुविधाभोगी लोगों ने तराई क्षेत्रों की ओर बीते 10 सालों के भीतर ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेष के जमाने से ही रूख करना षुरू कर दिया था, पहाडवासी वे परिवार जो थोड़ा भी सम्पन्न थे वे पहाड़ी क्षेत्र की तलहटी याने हलद्वानी,रामनगर,खटीमा, टनकपुर, उधमसिंह नगर,कोटद्वार, हरिद्वार, ़ऋषिकेष, विकासनगर तथा देहरादून में आ बसे । इनके यहां आने के कारण उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्रों में जहां धान, गेहूं तथा नकदी फसलों के अलावा लीची, अमरूद आम आदि के बाग, बगीचे तथा खेत खलिहान लगभग सभी समाप्ति के कगार पर हैं। वहीं इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पर्वतीय क्षेत्र भी पलायन के कारण लगभग धीरे-धीरे खाली होते जा रहे है जिसका खामियाला पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को विधानसभा की छह सीटें कम होने के कारण भुगतनी पड़ी है। इतना ही नहीं सुरक्षा की दृष्टि से राज्य के सीमांत जिलों के बार्डर वाले इलाकों के खाली होने के कारण देष की सुरक्षा को भी खतरा बढ़ता जा रहा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जम्मू कष्मीर क्षेत्र के कारगिल इलाके में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ की जानकारी सबसे पहले वहां के लोगों ने ही भारतीय सेना को दी। यह उदाहरण यहां इसलिए भी उचित है कि पर्वतीय क्षेत्र होने के नाते उत्तराखण्ड राज्य की सीमाएं तीन स्थानों पर अंर्तराष्ट्रीय सीमाओं से लगती है ऐसे में राज्य के साथ ही देष की सुरक्षा के लिए भी राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थानीय लोगों का होना जरूरी है।
 जहां तक विधायक चीमा के बयान पर मचे बवंडर का सवाल है कांग्रेस इस बयान का राजनैतिक लाभ लेने की फिराक में हैं जबकि यूकेडी इस बयान पर पहाड़ बनाम मैदान का खेल खेलना चाहती है, वहीं भाजपा इस पर बचाव की मुद्रा में दिखाई तो दे रही है साथ ही वह चीमा का बचाव कर अपने कुनबे को संभालती दिखायी दे रही है। लेकिन इस सभी राजनैतिक दलों में से किसी ने भी चीमा के बयान की गहराई में डुबकी लगाकर यह खोजने की कोषिष नहीं की कि आखिर उनके इस बयान में कितनी सत्यता है। पर्वतीय सरोकारों से जुड़े कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि चीमा ने क्या गलत बोला। उनका कहना है जनता तो तराई की ओर राजनीतिक लोगों की देखा देखी में आ रही है। इनका  कहना है जब मुख्यमंत्री बहुगुणा, पूर्व मुख्यमंत्री खण्डूड़ी, निषंक, पूर्व मंत्री दिवाकर भटट सहित वर्तमान मंत्री हरक सिंह रावत, प्रीतम सिंह पंवार, प्रीतम सिंह चौहान, मंत्री प्रसाद नैथानी, यषपाल आर्य, विधायक सुबोध उनियाल,विजयपाल सजवाण, राजेन्द्र भण्डारी आदि सहित केन्द्रीय मंत्री हरीष रावत व सतपाल महाराज आदि चुनाव तो पर्वतीय क्षेत्रों से लड़ते हैं लेकिन इन्होने अपनी रिहायष अब तराई क्षेत्र के प्रमुख  षहरों में बना दी है। इनका कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों के साथ ही पष्चिमी उत्तरप्रदेष के तमाम धनाढ्यों ने राज्य के तराई क्षेत्र की लगभग काफी कुछ खेती की जमीन खरीद डाली है और यहां मूल निवासियों ने धन के लालच में पुष्तैनी जमीनों को बेच डाला है, इसका परिणाम है कि तराई में भी कृषि भूमि दिन प्रतिदिन संकुचित होती जा रही है जिसका खामियाजा राज्य में भूमि की दरों में अप्रत्याषित बढोत्तरी के रूप में सामने आ रहा है। कहने का यह मतलब है कि विधायक चीमा के बयान के दूसरे पहलू को भी देखने की जरूरत है और इसे बिना वजह तूल नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि इसकी गंभीरता को समझना होगा। http://www.devbhoomimedia.com/राज्य/uttarakhand/item/261-बयान,-बवंडर-और-निहितार्थ

देवभूमि में देह के दलदल में राजनीतिक दल

राजेन्द्र जोशी

देहरादून :   उत्तराखण्ड के अस्तित्व में आये अभी भले ही 12 साल होने वाले हैं,लेकिन इन सालों में प्रदेश  के नेताओं में महिला प्रेम को लेकर क्या गुल नहीं खिलाये यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदेश मे इन सालों में दोनों ही राजनीतिक दलों के नेताओं के नाम गाहे-बगाहे महिलाओं से ही नहीं जुड़े बल्कि इस तरह के मामलों में चर्चित किसी ने जेल ही हवा खायी तो किसी को डीएनए परीक्षणों के दौर से गुजरना पड़ा। इस तरह का मामला तब अंर्तराष्ट्रीय सुर्खियों में आया जब बीती 27 जुलाई को पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी की डीएनए रिपोर्ट दिल्ली उच्च न्यायालय में खुली और तिवारी 87 साल की उम्र में पिता घोषित हो गये।
     देश के नक़्शे पर उत्तराखंड राज्य एक दशक पहले अस्तित्व में आया हो लेकिन इस छोटे से पहाड़ी प्रदेश की जमीन राजनेताओं पैदावार के लिए उपजाऊ रही है। प्रदेश की ऊबड़ खाबड़ और दरदरी जमीन से कई राष्ट्रीय स्तर के नेता पैदा हुए, जिसमें देश के पहले गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत जैसे राजनीतिक भीष्म भी शामिल हैं, तो वर्तमान में प्रदेश में ऐसे कई नेता हैं जो सूबे के भाग्यविधाता बनने की हरसत पाले हुए हैं। आजादी से लेकर आधुनिक भारत के नेताओं की सोच में भारी अंतर आ चुका है। तब के राजनेता देश-प्रदेश के लिए अपने जीवन को इस लिए खपा देते थे  कि उनका मिशन राजनीति सेवा के लिए था न कि व्यवसाय। वे अपने अनुभव का लाभ जनता को देते थे, लेकिन अब के नेता राजनीति में जीवन तो खपा रहे हैं लेकिन देश-प्रदेश के लिए नहीं ,बल्कि अपने स्वार्थों के लिए।
  आजादी के कुछ दशकों तक उत्तराखंड के राजनेताओं ने देश की राजनीति में जो छवि बनाई, उसके लिए उन्हे हमेशा उन्हें याद किया जायेगा। लेकिन आठवें दशक के बाद सूबे की राजनीति में जो पुरोधा आये, वो भले ही जनता के हितैषी रहे होंगे लेकिन उनके दामन पर कई प्रकार के दाग भी लगे। यही वजह है कि इस दौर के नेता अपने जमाने में किये गये अनैतिक कार्यों के कारण आज भी मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं। राज्य गठन के बाद सूबे की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस का दखल रहा, दोनों ही दलों की प्रदेश में बारी-बारी से सरकारें रही, लेकिन इन दोनों ही दलों के नेताओं का महिलाओं के प्रति एक खास तरह का लगाव चर्चाओं में रहा। महिलाओं के प्रति नेताओं  के अगाध प्रेम के चलते कई मोर्चों पर प्रदेश के नेताओं को मुंह की भी खानी पड़ी। प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री जहां महिला प्रेम को लेकर बुढापे में बदनाम हुए वहीं उन्ही की सरकार में रहे खाद्य मंत्री भी महिला प्रकरण में फंसे और जैनी प्रकरण में नाम चर्चा में आने के चलते उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
   भाजपा सरकार के कई नेताओं और मंत्री पर भी महिला प्रेम का आरोप लगा। खंडूडी सरकार में दो कैबिनेट मंत्रियों सोमेश्वर  व हरिद्वार से विधायकों पर महिला प्रेम और उसके बाद उसकी हत्या तक करने का आरोप गीता खोलिया तथा कविता हत्याकांड के रूप में सामने आया। इतना ही नहीं इस सरकार के नेताओं पर एक दलित युवती के साथ बलात्कार का आरोप लगा जिससे सरकार की खूब किरकिरी भी हुई और सहकारिता प्रकोष्ठ के संयोजक सहित कई छूटभैय्या नेताओं को जेल की हवा भी खानी पड़ी लेकिन इस मामले में भाजपा संगठन के एक नेता जिसका नाम सामने आ रहा था पर दबाव के चलते पुलिस हाथ नहीं डाल सकी। कैबिनेट मंत्री  रहे भाजपा संगठन के प्रमुख पर एक दलित जिला पंचायत अध्यक्ष ने शारीरिक शोषण के आरोप लगाये और इसे इत्तेफाक ही कहा जा सकता है कि ठीक इसी तरह के आरोप वर्तमान सरकार के कैबिनेट मंत्री व पार्टी के प्रधान पर भी लगे हैं।
   लेकिन अब वर्तमान सरकार के दो मंत्रियों की भी एक महिला के प्रमोशन को लेकर ठनी हुई है। दरअसल शिक्षा विभाग से बीईओ पद से बिना किसी विभागीय अनापत्ति के कृषि विभाग में बीज प्रमाणिकरण अभिकरण के निदेशक पद तैनाती लेने से ये बखेड़ा खड़ा हुआ है। मामले में बीते दिन मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप किया है लेकिन इसका क्या परिणाम होगा वह अभी सामने नहीं आया है। सूबे में हाल ही में सामने आये इन दो ताजा प्रकरणों ने साफ कर दिया कि सूबे के नेताओं का महिलाओं के प्रति रूझान राज्य की राजनीति में गुल खिलाता रहेगा। इन तमाम प्रकरणों से तो साफ जाहिर होता है कि प्रदेश के सियासदां उत्तर प्रदेश की तरह यहां भी महिलाओं के मोहपाश में फंसे नजर आते हैं जिन्हे प्रदेश की फिक्र कम और महिलाओं मित्रों की चिन्ता ज्यादा सताती है। लेकिन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के साफ दामन में दमयन्ती का जो दाग लगा उसे किस डिर्टजेंन्ट से धोया जाएगा बहुगुणा बखूबी जानते होंगे।