राजेन्द्र जोशी
देहरादून, उत्तराखण्ड राज्य में जो मौज अधिकारी काट रहे हैं वो शायद कोई और नहीं एक - एक अधिकारी पर चार-चार विभाग और उतनी ही गाड़ियां। यानी एक अधिकारी और चार सवारी, इतना ही नहीं जिन अधिकारियों की बीबियां भी अधिकारी हैं उनकी तो और पौ बारह है, यानी दो अधिकारी और आठ सवारी। अब आप लोग सोचते होंगे भला इस छोटे से प्रदेष में इतनी गाड़ियों का ये अधिकारी क्या करते होंगे, तो हम बताते हैं आपको, दो अधिकारी दो सवारी तो अधिकारियों की सेवा में, दो सवारी परिवारों की सेवा में और दो सवारी घरेलू मेहमानों और किचन का सामान लाने वालों की सेवा में। गाडियां भी एक तरह की नहीं विभिन्न तरह की, पहाड़ जाना हो एसयूबी याने बोलेरो,स्कार्पियों आदि, मैदान में चलना हो तो एम्बेसेडर तो है ही अन्यथा सरकारी ठेकेदार से इनोवा आदि भी मंगायी जा सकती है। बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने के लिए अलग से गाड़ियां भी हैं सो अलग हैं। उदाहरण के लिए एक अधिकारी है जिनके पास तीन महत्वपूर्ण विभाग हैं और उनकी धर्मपत्नी के पास भी लगभग इतने ही विभाग, दोनों ही आईएएस हैं तीन गाड़ियां पत्नी के पास और तीन पति के पास के विभागों की इनके घर पर खड़ी रहती हैं।
एक तो राजधानी देहरादून की तंग सड़कें, उपर से सरकारी गाड़ियों का बोझ, साहब की गाड़ियों को यदि रेंग कर चलना पड़े तो समझो शामत आ गयी देहरादून की पब्लिक की। आरटीओ से लेकर पुलिस के सभी अधिकारी आ धमकते हैं रोड़ पर और फिर किस गरीब की शामत इनके हाथों आ जाये कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक और बात जिन्होने उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई सड़कों पर लड़ी वही उत्तराखण्डी आज उस सड़क से दूर गलियों से निकलने में ही अपनी भलाई समझ रहा है क्योंकि राज्य बनने के बाद इन चैड़ी सड़कों पर राज्य में आये अधिकारियों व उनको मिलने वाली गाड़ियों ने एकाधिकार जमा लिया है। ऐसे में यहां के लोग आखिर कहां और किस सड़क पर गाडियां चलायें उनके समझ में नहीं आ रहा है। दूसरा उत्तराखण्ड के सूदूरवर्ती अंचलों की सड़कों से इनका क्या लेना देना उन्हे तो यहां की सड़कों में एक भी गढ़ढा नहीं दिखायी देना चाहिए या यूं कहें कार में बैठे अधिकारी व उनकी धर्मपत्नी को गाड़ी में बैठे होने के बावजूद गाड़ी के चलते वक्त यह महसूस नहीं होना चाहिए कि वह देहरादून की सड़कों पर चल रहे हैं उन्हे इस बात से क्या लेना देना कि पहाड़ी मार्गो पर सड़कों पर गढढे हैं अथवा गढढों में सड़कें। इन्हे तो सचिवालय से टिहरी हाउस अथवा ऊषा कालोनी तक की सड़क मलाईदार चाहिए।
ये तो था कारों का मामला अब कर्मचारियों को ही देखिये गाड़ियों के हिसाब से कर्मचारी इन अधिकारियों की जी हूजूरी में लगे रहते हैं वहीं इतने ही और कर्मचारी जो इनके घरों में नौकर की तरह काम करते हैं। , भला इन्हे अपना निजी नौकर रखने से क्या फायदा जब सरकार ने आठ गाड़ियां आठ ड्राईवर और लगभग इतने ही नौकर दे जो रखे हैं इतना ही नहीं होमगार्ड के जवान तक इनके घरों में बर्तन साफ कर रहे हैं इसके बाद भी ये अधिकारी कहते हैं कि वे तो गंगा जल से भी ज्यादा पवित्र और युधिष्ठर की तरह ईमानदार हैं
देहरादून, उत्तराखण्ड राज्य में जो मौज अधिकारी काट रहे हैं वो शायद कोई और नहीं एक - एक अधिकारी पर चार-चार विभाग और उतनी ही गाड़ियां। यानी एक अधिकारी और चार सवारी, इतना ही नहीं जिन अधिकारियों की बीबियां भी अधिकारी हैं उनकी तो और पौ बारह है, यानी दो अधिकारी और आठ सवारी। अब आप लोग सोचते होंगे भला इस छोटे से प्रदेष में इतनी गाड़ियों का ये अधिकारी क्या करते होंगे, तो हम बताते हैं आपको, दो अधिकारी दो सवारी तो अधिकारियों की सेवा में, दो सवारी परिवारों की सेवा में और दो सवारी घरेलू मेहमानों और किचन का सामान लाने वालों की सेवा में। गाडियां भी एक तरह की नहीं विभिन्न तरह की, पहाड़ जाना हो एसयूबी याने बोलेरो,स्कार्पियों आदि, मैदान में चलना हो तो एम्बेसेडर तो है ही अन्यथा सरकारी ठेकेदार से इनोवा आदि भी मंगायी जा सकती है। बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने के लिए अलग से गाड़ियां भी हैं सो अलग हैं। उदाहरण के लिए एक अधिकारी है जिनके पास तीन महत्वपूर्ण विभाग हैं और उनकी धर्मपत्नी के पास भी लगभग इतने ही विभाग, दोनों ही आईएएस हैं तीन गाड़ियां पत्नी के पास और तीन पति के पास के विभागों की इनके घर पर खड़ी रहती हैं।
एक तो राजधानी देहरादून की तंग सड़कें, उपर से सरकारी गाड़ियों का बोझ, साहब की गाड़ियों को यदि रेंग कर चलना पड़े तो समझो शामत आ गयी देहरादून की पब्लिक की। आरटीओ से लेकर पुलिस के सभी अधिकारी आ धमकते हैं रोड़ पर और फिर किस गरीब की शामत इनके हाथों आ जाये कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक और बात जिन्होने उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई सड़कों पर लड़ी वही उत्तराखण्डी आज उस सड़क से दूर गलियों से निकलने में ही अपनी भलाई समझ रहा है क्योंकि राज्य बनने के बाद इन चैड़ी सड़कों पर राज्य में आये अधिकारियों व उनको मिलने वाली गाड़ियों ने एकाधिकार जमा लिया है। ऐसे में यहां के लोग आखिर कहां और किस सड़क पर गाडियां चलायें उनके समझ में नहीं आ रहा है। दूसरा उत्तराखण्ड के सूदूरवर्ती अंचलों की सड़कों से इनका क्या लेना देना उन्हे तो यहां की सड़कों में एक भी गढ़ढा नहीं दिखायी देना चाहिए या यूं कहें कार में बैठे अधिकारी व उनकी धर्मपत्नी को गाड़ी में बैठे होने के बावजूद गाड़ी के चलते वक्त यह महसूस नहीं होना चाहिए कि वह देहरादून की सड़कों पर चल रहे हैं उन्हे इस बात से क्या लेना देना कि पहाड़ी मार्गो पर सड़कों पर गढढे हैं अथवा गढढों में सड़कें। इन्हे तो सचिवालय से टिहरी हाउस अथवा ऊषा कालोनी तक की सड़क मलाईदार चाहिए।
ये तो था कारों का मामला अब कर्मचारियों को ही देखिये गाड़ियों के हिसाब से कर्मचारी इन अधिकारियों की जी हूजूरी में लगे रहते हैं वहीं इतने ही और कर्मचारी जो इनके घरों में नौकर की तरह काम करते हैं। , भला इन्हे अपना निजी नौकर रखने से क्या फायदा जब सरकार ने आठ गाड़ियां आठ ड्राईवर और लगभग इतने ही नौकर दे जो रखे हैं इतना ही नहीं होमगार्ड के जवान तक इनके घरों में बर्तन साफ कर रहे हैं इसके बाद भी ये अधिकारी कहते हैं कि वे तो गंगा जल से भी ज्यादा पवित्र और युधिष्ठर की तरह ईमानदार हैं
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