मंगलवार, 4 नवंबर 2014

टिहरी झील से होंगे पेरिस,पोखरा गोवा और डल झील के दर्शन

पलायन रोकने में कारगर साबित होगी झील : हरीश रावत 

राजेन्द्र जोशी

टिहरी बाँध ने जिस तरह से गंगा का पानी रोक दिया है ठीक वैसे ही प्रदेश सरकार इस बाँध के अथाह जल को रोज़गार से जोड़कर पलायन को भी रोकना चाहती है, यदि सरकार की योजना परवान चढ़ी तो वह दिन दूर नहीं जब टिहरी बाँध जिसे प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने श्रीदेव सुमन सागर का नाम दिया है, उसमें पेरिस ही नहीं बल्कि गोवा व कश्मीर की डल झील में चलते हुए शिकारे व हाउस बोट के दीदार होंगे जिसमे सैर करने को दुनिया तरसती है. पेरिस  की तर्ज पर यहाँ सैलानियों को जलक्रीडा के लिए वाटर स्कूटर तो चलेंगे ही साथ ही पॉवर बोट के पीछे रस्सी के सहारे वाटर सर्फिंग के नज़ारे भी देखने को मिलेंगे, गोवा व समुद्र के किनारे स्थित उत्तरपूर्वी देशों की तर्ज पर बड़े-बड़े तैरते रेस्टोरेंट व मरीना तो इस सरोवर में दिखाई ही देंगे साथ ही लॉस वेगास की तर्ज पर कैसिनो को खोलने की भी सरकार की योजना है. नेपाल के पोखरा की तर्ज पर सैलानियों को हिमालय दर्शन जहाँ हवाई जहाज व हेलीकाप्टर से कराने की सरकार की योंजना है तो इस सरोवर से सी प्लेन उड़ाने के सपने भी सरकार देख रही है, इतना ही नही इस सरोवर में क्रूज चलाकर सैकड़ों बेरोजगारों को स्वरोजगार से भी जोड़ने की सरकार की योजना है.
  प्रदेश सरकार इस श्री देव सुमन सरोवर के चारों तरफ की 45 हज़ार हेक्टेयर भूमि को विश्व स्तरीय पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करना चाहती है इसके लिए सरकार ने डीपीआर तैयार कर दी है, इस योजना के तहत झील के चरों तरफ एक रिंग रोड का निर्माण किया जायेगा जिस पर कई इस तरह के स्थान चिन्हित होंगे जहाँ विभिन्न तरह की पर्यटन गतिविधियाँ की जाएँगी, पर्यटन सचिव उमाकांत पंवार के अनुसार राज्य सरकार ने इसके विकास के लिए एक महायोजना तैयार कर ली है, क्योंकि अभी शुरुआती दौर में ही इसकी योजना ठोस होनी चाहिए ताकि भविष्य में इस इलाके अनियंत्रित निर्माण न हो जिनकी वजह से इसकी ख़ूबसूरती पर कोई प्रभाव न पड़े. उन्होंने बताया कि पर्यटन विभाग इन सभी योजनाओं के लिए सिंगल विंडो योजना शुरू करेगा ताकि यहाँ निवेश करने वालों को कोई परेशानी न हो,
 पर्यटन सचिव उमाकांत पंवार ने बताया कि उनका उद्देश्य यहाँ की संस्कृति को संजोकर रख पर्यटन विकास की है ताकि देश विदेश से आने वाले पर्यटक यहाँ की संस्कृति से रूबरू भी हो सकें, उनका कहना है कि टिहरी एक ऐतिहासिक शहर था लिहाज़ा पर्यटकों  को यहाँ के इतिहास की जानकारी होनी जरुरी है, उन्होंने बताया यहाँ ग्रामीण पर्यटन को विकसित करके स्थानीय ग्रामीणों को स्वरोजगार से जोड़ने की भी सरकार की योजना है, इतना ही नहीं सरकार चाइना व ऋषिकेश की तर्ज पर यहाँ स्वास्थ्य पर्यटन को भी बढ़ाना चाहती है, सरकार की योजना है कि सरोवर इलाके के ऊँचाई वाले स्थानों को केबल कार व रोपवे से जोड़ा जाये ताकि पर्यटन से और भी रोज़गार प्राप्त हो सके.  वहीँ 44 वर्ग किलोमीटर की इस झील में जितने भी साहसिक खेल होते हैं प्रदेश सरकार उनको भी यहाँ करने की योजना बना रही है. इसके लिए देश विदेश के पर्यटन उद्योग में काम करने वाले लोगों व कंपनियों से सरकार बात कर रही है. इतना ही नहीं इस इलाके को हवाई सेवा से जोड़ने के उद्देश्य से राज्य सरकार ने चिन्यालीसौड़ हवाई अड्डे को विकसित करने जा रही है जो अगले अक्टूबर तक तैयार हो जायेगा. इससे अस्तित्व में आने के बाद देश व विदेश से हवाई सेवा होने से समय की बचत भी हो सकेगी जिसका सीधा लाभ पर्यटकों को मिलेगा. टिहरी सरोवर में आयोजित हुए दो दिवसीय साहसिक खेलों के आयोजन से सरकार सहित स्थानीय युवाओं में उम्मीदें जगी हैं जिसका लाभ बेरोजगारों के साथ ही यहाँ के पर्यटन को भी मिलेगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है. 

पद्म पुरस्कार के लिए जागर गायक बसंती बिष्ट व जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण पर छिड़ी जंग

लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी का नाम सूची से गायब होने पर राज्यवासी नाराज 

पद्मभूषण के लिए हिमालयन इंस्टिट्यूट के संस्थापक  डॉ .स्वामी राम 

पद्म श्री के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में न्यूरो सर्जन महेश कुडियाल 

राजेन्द्र जोशी 
देहरादून : आगामी 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर दिए जाने वाले पदम पुरस्कारों के लिए उत्तराखंड सरकार ने सात नामों की सूची केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी है लेकिन नाम भेजने से पहले ही इस सूची पर विवाद की काली छाया पड़ गयी है ,सबसे बड़ी चौकाने वाली बात तो यह है उत्तराखंड के प्रसिद्द लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी का नाम इस सूची से गायब है जिन्होंने अपने जीवन के 50 से ज्यादा वर्ष उत्तराखंड की खासकर गढ़वाल की संस्कृति व संगीत के संवर्धन व संरक्षण को दिए हैं. इतना ही नही गढ़वाली व कुमायूनी लोकगीतों को देश व विदेश तक उन्होंने पहुंचाए हैं लेकिन राज्य की नौकरशाही के आगे पीछे न घुमने के चलते उनको इस सम्मान से वंचित रखने का कुत्सित प्रयास राज्य सरकार द्वारा किया गया है.इसकी जितनी भी भर्त्सना की जाये वह कम है. 
   संस्कृति व कला के क्षेत्र में बसंती देवी बिष्ट और प्रीतम भरतवाण का नाम भेजा गया है। उत्तराखंड के लोक संगीत व वाद्य यंत्रों पर शोध करने वाले डॉ. वीरेन्द्र बर्तवाल के अनुसार इनमें समानता यह है कि दोनों जागर गायन में प्रसिद्ध हैं, लेकिन दोनों में बहुत बड़ी असमानता भी है। प्रीतम भरतवाण जागर गायन विधा के साथ ही लोेकगीत गायन में भी ख्यात हैं। उन्हें ढोल सागर का ज्ञाता और ढोल वादन में प्रवीण माना जाता है। विदेश के कई विश्वविद्यालयों में वे ढोल वादन विद्या सिखा चुके हैं और करीब एक दर्जन देशों में उत्तराखंड की संस्कृति की पताका फहरा चुके हैं। उन्हें हुड़का समेत उत्तराखंड के करीब आधा दर्जन वाद्य यंत्र बजाने आते हैं। जागर गायन में उनकी निष्णातता का एक प्रमुख का कारण यह है कि उनका यह पैतृक व्यवसाय रहा है। उन्होंने नरसिंग, नागराजा, घंटाकर्ण, नंदा, आछरी, गोरील समेत कई देवी—देवताओं को अपनी अलबमों में स्थान दिया है। इधर, बसंती बिष्ट के बारे में बात करें तो जहां तक मुझे जानकारी है, उन्होंने मांगल और नंदा के इतर अधिक जागर गायन नहीं किया है। जिसने ये नाम प्रस्तावित किए और जिसने ये नाम केंद्र को प्रस्तावित किए, उसे भी इन बातों पर गहराई से विचार करना चाहिए था। इन बातों पर पक्षपात समाज और संस्कृति के लिए घातक होता है। यह इस विधा और संबंधित कलाकार के साथ भी विश्वासघात है। बसंती बिष्ट अगर फ्योंली,जसी,रामा धरणी, रणू—झंक्रू और मालू राजूला में से किसी दो गाथाओं का कथानक भी बता दें तो मान जाउंगा उन्हें। बसंती जी से मेरा कोई दुराग्रह और प्रीतम जी से कोई बहुत बड़ा संबंध नहीं, लेकिन बात कला को परखने की, योग्यता की तुलना की है। प्रीतम के साथ 'छोरा—छापर' वाला व्यवहार होता आया है, इसे मैं कई बार महसूस कर चुका हूं। मेरे पास प्रमाण भी है,जबकि इस व्यक्ति ने उत्तराखंड की जागर विधा को संजीवनी दी है।
  वहीँ एक जानकारी के अनुसार स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा का नाम पदम विभूषण के लिए भेजा गया है। स्व. बहुगुणा अविभाजित यूपी के मुख्यमंत्री रहने के अलावा कद्दावर राजनीतिज्ञों में रहे हैं और केंद्र में भी महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री रहे हैं। उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में दिए गए योगदान के लिए यह पुरस्कार दिए जाने की संस्तुति की गई है।
   इसके अलावा हेल्थ सेक्टर में किए गए सराहनीय कार्यों के लिए स्व. बृज किशोर धस्माना (स्वामी राम) का नाम पदम भूषण के लिए भेजा गया है। इसके अलावा पदमश्री के लिए पांच नाम भेजे गए हैं। संस्कृति व कला के क्षेत्र में बसंती देवी बिष्ट और प्रीतम भरतवाण का नाम भेजा गया है। इसके अलावा हेल्थ सेक्टर में काम करने के लिए डॉ. महेश कुडियाल के नाम की संस्तुति की गई है । साहित्य के क्षेत्र में पूर्व आईपीएस चमनलाल प्रद्योत का नाम पदमश्री के लिए भेजा गया है।

मुख्यसचिव की ताजपोशी को लेकर मुख्यमंत्री ने जनभावनाओं का किया सत्कार, चाटुकारों को दिया दुत्कार

अंतिम दौर में सीएम हरीश ने दिया राका को झटका

आखिकार जनभावनाओं की ही हुई जीत

अतुल बरतरिया / राजेन्द्र जोशी

cm Nravishankar22देहरादून । अपर मुख्य सचिव राकेश शर्मा के अरमानों पर आखिरकार पानी फिर ही गया। अर्से से सत्ता पर पूरी जकड़ रखने वाले इस चर्चित नौकरशाह की लाबिंग सफल नहीं हो सकी और मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस अफसर के प्रति आम जनमानस में व्याप्त आक्रोश को भांपा और प्रदेश के सबसे बड़े नौकरशाह की कुर्सी से इस महरूम कर दिया। बताया जा रहा है कि ऐसा करने के लिए सीएम को अपने दो सहयोगी मंत्रियों और एक बड़े नेता की सलाह और मंशा को भी दरकिनार कर दिया।
 दरअसल, ‘राका’ के नाम से आम लोगों में पहचान रखने वाले इस अफसर ने मुख्य सचिव बनने के लिए पूरी लामबंदी कर रखी थी। इसके लिए दो काबीना मंत्रियों और एक बड़े कांग्रेसी नेता को भी लगाया गया था। इस नेता के समय में राकेश शर्मा बतौर सुपर सीएस के रूप में काम करते रहे थे। इतना ही नहीं अपने गुट के कुछ जूनियर अफसरों को तो इस राका ने बकायदा सीएम के पास भेजा। तर्क दिया गया कि उत्तराखंड के कम काम करने वाले अफसरों को मुख्य सचिव की कुर्सी न दी जाए। बताया जा रहा है कि राका ने सीएम की किचन कैबिनेट के कुछ लोगों को भी अपने पक्ष में कर लिया था। ये लोग अपने स्तर से सीएम हरीश पर दबाव बना रहे थे। खनन और शराब कारोबार से जुड़े लोग भी राकेश को ही मुख्य सचिव बनाने की पैरवी करने में जुटे थे।
दूसरी तरफ सीएम पर आम लोगों का भी दबाव बन रहा था। सोशल मीडिया में इस अफसर के कारनामे आए दिन सुर्खियों में रहते रहे हैं। इसी अफसर के सिडकुल में किए गए कारनामे को लेकर उत्तराखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है। हाईकोर्ट इस पर सुनवाई भी कर रहा है। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने भी इस अफसर की कार्य़प्रणाली को लेकर सीएम से शिकायत कर रखी थी। इसके बाद भी माना यही जा रहा था कि अंतिम समय में बाजी राका के हाथ ही लगेगी। लेकिन सीएम हरीश ने आखिरकार जनभावनाओं का सम्मान किया और राका को मौका नहीं दिया। माना जा रहा है कि अगर राकेश शर्मा मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचने की अपनी मुहिम में सफल हो जाते तो आम जनमानस में इसका सरकार के खिलाफ संदेश जाता। 


रविशंकर की कार्यप्रणाली पर रहेगी नजर


  बहुगुणा सरकार के समय से ही राकेश शर्मा खासे ताकतवर रहे हैं। मुख्य सचिव कोई भी रहा हो सचिवालय में राकेश की ही तूती बोलती रही है। मुख्य सचिव    के कमरे में सन्नाटा रहता था तो राकेश का कमरा हर वक्त नेताओं, अफसरों,ठेकेदारों,दलालों  और अन्य प्रभावशाली लोगों से गुलजार रहता था। एक तरह से    मुख्य सचिव महज एक डमी की भूमिका में ही रहे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि नए मुख्य सचिव एन रविशंकर के समय में राकेश शर्मा का रूतबा  बरकरार रहता है या फिर पर कतर दिए जाएंगे। वैसे सचिवालय में चर्चा यही हो रही है कि राकेश शर्मा आज वाले अंदाज में ही ताकतवर बने रहेंगे।



सीएम हरीश ने खेला ट्रंप कार्ड

केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर तैनात वरिष्ठ अफसर उत्तराखंड लौटने को तैयार भी नहीं हो रहे थे। एक अफसर को लाने के लिए सीएम ने केंद्र सरकार के एक मंत्री से खुद भी फोन पर बात की। मंत्री ने अफसर को रिलीव करने से मना कर दिया। इस पर सीएम ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करने की बात की। इस मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री ने साफ कर दिया कि अगर जरूरत पड़ी तो वे प्रधानमंत्री से भी बात करने को तैयार हैं। मंत्री का ऐसा रुख देखकर सीएम ने दूसरे विकल्प तलाशने शुरू कर दिए। बताया जा रहा है कि सीएम ने अपने स्तर से ही केंद्र सरकार स्तर पर बात की और एन रविशंकर को उत्तराखंड के लिए कार्यमुक्त करवा लिया। सीएम पर राका को लेकर दबाव इतना ज्यादा था कि उन्होंने इस मुद्दे पर किसी से बात नहीं की और रविशंकर उत्तराखंड में ज्वाइनिंग देते ही उन्हें मुख्य सचिव पद पर तैनात कर दिया। माना जा रहा है कि अगर यह मामला प्रचारित हो जाता तो सीएम पर चौतरफा दबाव बढ़ जाता। 



विवादों से रहा है ‘’राका’’ का नाता



मामला चाहे सिडकुल घोटाले का हो या अल्ट्राटेक को त्यूनी व सोमेश्वर में सीमेंट प्लांट लगाने  के लिए भूमि का अथवा कोकाकोला को छरबा में जमीन आबंटन का इसके अलावा डी एस ग्रुप को सितारगंज में जमीन का इन सभी मामलों के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के सपनों के सॉफ्टवेयर पार्क(I T Park ) के लिए आरक्षित जमीनों को भू-माफियाओं को औने पौने दामों पर ग्रुप हाउसिंग प्रोजेक्ट्स के लिए भूमि देने के अलावा राज्य में गंगा में खनन का व स्टोन क्रेशर का यह अधिकारी हमेशा से ही चर्चाओं में रहा है ,इतना ही उत्तराखंड के तमाम निर्माण कार्यों में उत्तरप्रदेश राजकीय निर्माण निगम व कई और बाहरी प्रदेशों की निर्माण एजेंसियों को काम देने को लेकर भी ‘’राका’’ चर्चाओं में रहे. वैसे तो इनके घोटालों व घपलों की फेहरिश्त काफी लम्बी है जिनमे से कई पर उच्च न्यायालय में जनहित याचिका लंबित है. 


नहीं थम पा रही पहाड़ी गांवों से पलायन की गति

पलायन को रोकने के लिए ठोस नीति नहीं बना पाई सरकार 

राजेन्द्र जोशी
देहरादून । राज्य गठन के बाद भी पहाड़ के गांवों से पलायन की गति कम नहीं हो पाई है। पलायन कम होने के बजाए पिछले चैदह वर्षों में और तेजी से बढ़ा है। पहाड़ के गांवों से लोग सुख-सुविधाओं और रोजगार के अभाव में तेजी से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिस कारण गांव खाली होते जा रहे हैं। गांव खाली होने से घर खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। सरकार को पहाड़ के उजड़ते गांवों और बंजर होते खेतों की कोई चिंता नहीं है। गांवों से पलायन को रोकने की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया है। 
    राज्य गठन को चैदह वर्ष होने को हैं, उसके बावजूद उत्तराखंड के गांवों के विकास के लिए कोई ईमानदार पहल नहीं हुईं। गांवों में पानी, स्वास्थ्य, ईंधन, बिजली, सड़क, संचार, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव बना हुआ है। पेयजल किल्लत के चलते कई गांवों में लोगों को आज भी आधा से दो किमी दूर से पानी ढोना पड़ता है। पेयजल समस्या के कारण लोग पशुओं को बेच रहे हैं, जिस कारण पहाड़ के गांवों में दुग्ध उत्पादन सिमटता जा रहा है। अधिकांश गांवों में अभी भी ईंधन का जरिया लकड़ी है, लोग लकड़ी जलाकर भोजन बनाते हैं। वन विभाग की सख्ती के चलते ग्रामीणजनों को वनों से लकड़ी भी नहीं मिल पा रही है, जिस कारण लोगों के लिए खाना बनाना मुश्किल होता जा रहा है। पहाड़ों में सिंचाई का कोई साधन नहीं है, सिंचाई पूर्ण रूप से इंद्र देव की कृपा पर निर्भर है। सिंचाई साधनों के अभाव में लोग खेती-बाड़ी छोड़ने को मजबूर हैं, जिस कारण खेत बंजर होते जा रहे हैं। पहाड़ के कई गांवों का अभी विद्युतीकरण नहीं हो पाया है, जिस कारण लोगों को जिंदगी अंधेरे में काटनी पड़ती है। पहाड़ के 70 प्रतिशत गांव सड़क सुविधा से नहीं जुड़ पाए हैं, जिस कारण लोगों को कई किमी की पैदल दूरी तय करनी पड़ती है। जिन गांवों के लिए सड़कें स्वीकृत हुई भी हैं उनमें से कई गांवों में वन भूमि आड़े आने से सड़कों का निर्माण कार्य अधर में लटका हुआ है। 
   ज्यादातर गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव बना हुआ है। मरीज को इलाज के लिए कुर्सी या चारपाई पर कई किमी की पैदल दूरी तय कर अस्पताल ले जाना पड़ता है। समय पर स्वास्थ्य सुविधा न मिलने से कई बार मरीज की रास्ते में ही मौत हो जाती है। ग्रामीण इलाकों में जो अस्पताल हैं भी उनमें चिकित्सकों का टोटा बना हुआ है। स्कूल हैं तो उनमें शिक्षकों की कमी बनी हुई है, जिस कारण बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं मिल पा रही है। सुख सुविधाओं के अभाव में पहाड़ के गांवों से लोग तेजी से पलायन कर रहे हैं, जिस कारण गांव खाली हो रहे हैं। गांवों में रोजगार के साधनों का अभाव बना हुआ है, पहाड़ के युवा रोजगार की तलाश में तेजी से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। युवाओं के पलायन के कारण पहाड़ के अधिकांश घरों में बजुर्ग लोग ही रह गए हैं। जिन खेतों में कभी फसल लहलाती थी वह बंजर हो गए हैं। पलायन के कारण ज्यादातर घर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। सरकार गांवों के विकास की न कोई नीति बना पाई है और नहीं पलायन को रोकने के प्रति गंभीर है। उद्योग मैदानी जिलों तक ही सीमित रह गए हैं। गांवों में रोजगार के साधन सृजित करने में निति निर्माता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यदि सरकार का गांवों के विकास के प्रति यही उदासीन रवैया रहा तो गांवों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। 
   मुख्य मार्र्गों की हालत खतरनाक बनी होने के कारण यहां से निकलने वाले यात्रियों को जोखिम भरा सफर तय करना पड़ता है। लोनिवि बदहाल मार्ग के रखरखाव के प्रति उदासीन बना हुआ है। जौनसार क्षेत्र के साहिया-क्वानू-मीनस, साहिया-समाल्टा-पानुवा, साहिया-हइया, अलसी-ककाड़ी, नराया-लोरली, कोरूवा-क्वाराना आदि मार्गांे की हालत लंबे समय से रखरखाव के अभाव में खस्ताहाल बनी हुई है। कमोवेष यही हालत राज्य के चार धामों की ओर जाने वाले मोटर मार्गों की भी है जो आपदा की त्रासदी के डेढ़ वर्ष से ज्यादा का समय गुजर जाने के बाद आज भी अच्छी हालत में नहीं आ पाये हैं, ज्यादातर मार्गांे के किनारे न सुरक्षा दीवारें हैं और न ही पैराफिट, ऐसे में इन मार्गांे पर सफर करते हुए डर लगता है। मार्गों पर पड़े पत्थरों के ऊपर आए दिनों दुपहिया वाहन सवार चोटिल हो रहे हैं। जगह-जगह पर मलबा पड़ा हुआ है। सड़क पर पड़ा मलबा दुर्घटनाओं को न्योता दे रहा है .

इंदिरा की हत्या की आंखों देखी!

नई दिल्ली। उड़ीसा में जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद इंदिरा गांधी 30 अक्टूबर 1984 की शाम दिल्ली पहुंची थीं। आमतौर पर जब वो दिल्ली में रहती थीं तो उनके घर 1 सफदरजंग रोड पर जनता दरबार लगाया जाता था। लेकिन ये भी एक अघोषित नियम था कि अगर इंदिरा दूसरे शहर के दौरे से देर शाम घर पहुंचेंगी तो अगले दिन जनता दरबार नहीं होगा। 30 तारीख की शाम को भी इंदिरा से कहा गया कि वो अगले दिन सुबह के कार्यक्रम रद्द कर दें। लेकिन इंदिरा ने मना कर दिया। वो आइरिश फिल्म डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव को मुलाकात का वक्त दे चुकी थीं।

इंटरव्यू के लिए निकल रही थीं इंदिरा
   एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट बताते हैं कि जैसे एक नॉर्मल तरीका होता है। सुबह उठकर आप जनता से मिलते हैं तो उस दिन एक बिजी शिड्यूल था। उनके इंटरव्यू के लिए बाहर से एक टीम आई हुई थी। पीटर उस्तीनोव आए। उन लोगों ने अपना सर्वे किया। ये देखा कि खुली जगह पर इंटरव्यू करना चाहिए। वहां दीवाली के पटाखे पड़े हुए थे। उसको साफ-वाफ करवा कर वैसा इंतजाम करवाया गया तो उसमें कुछ वक्त लग रहा था।
दरअसल पीटर इंदिरा गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। इस बीच सुबह के आठ बजे इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन 1 सफदरजंग रोड पहुंच चुके थे। धवन जब इंदिरा गांधी के कमरे में गए तो वो अपना मेकअप करा रही थीं। इंदिरा ने पलटकर उन्हें देखा। दीवाली के पटाखों को लेकर थोड़ी नाराजगी भी दिखाई और फिर अपना मेकअप पूरा कराने में लग गईं।
   अब तक घड़ी ने 9 बजा दिए थे। लॉन भी साफ हो चुका था और इंटरव्यू के लिए सारी तैयारियां भी पूरी थीं। चंद मिनटों में ही इंदिरा एक अकबर रोड की तरफ चल पड़ीं। यहीं पर पेंट्री के पास मौजूद था हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह। नारायण सिंह की ड्यूटी आइसोलेशन कैडर में होती थी। साढ़े सात से लेकर 8.45 तक पोर्च में ड्यूटी करने के बाद वो कुछ देर पहले ही पेंट्री के पास आकर खड़ा हुआ था। इंदिरा को सामने से आते देख उसने अपनी घड़ी देखी। वक्त हुआ था 9 बजकर 05 मिनट।

आर के धवन भी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।
दूरी करीब तीन से चार फीट रही होगी। तभी वहां से एक वेटर गुजरा। उसके हाथ में एक कप और प्लेट थी। वेटर को देखकर इंदिरा थोड़ा ठिठकीं। पूछा कि ये कहां लेकर जा रहे हो। उसने जवाब दिया इंटरव्यू के दौरान आइरिश डायरेक्टर एक-टी सेट टेबल पर रखना चाहते हैं। इंदिरा ने उस वेटर को तुरंत कोई दूसरा और अच्छा टी-सेट लेकर आने को कहा। ये कहते हुए ही इंदिरा आगे की ओर बढ़ चलीं। ड्यूटी पर तैनात हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह छाता लेकर उनके साथ हो लिया।

हत्यारों से इंदिरा ने कहा था-नमस्ते
तेज कदमों से चलते हुए इंदिरा उस गेट से करीब 11 फीट दूर पहुंच गई थीं जो एक सफदरजंग रोड को एक अकबर रोड से जोड़ता है। नारायण सिंह ने देखा कि गेट के पास सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह तैनात था। ठीक बगल में बने संतरी बूथ में कॉन्सटेबल सतवंत सिंह अपनी स्टेनगन के साथ मुस्तैद खड़ा था।
आगे बढ़ते हुए इंदिरा गांधी संतरी बूथ के पास पहुंचीं। बेअंत और सतवंत को हाथ जोड़ते हुए इंदिरा ने खुद कहा-नमस्ते। उन्होंने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता लेकिन बेअंत सिंह ने अचानक अपनी दाईं तरफ से .38 बोर की सरकारी रिवॉल्वर निकाली और इंदिरा गांधी पर एक गोली दाग दी। आसपास के लोग भौचक्के रह गए। सेकेंड के अंतर में बेअंत सिंह ने दो और गोलियां इंदिरा के पेट में उतार दीं। तीन गोलियों ने इंदिरा गांधी को जमीन पर झुका दिया। उनके मुंह से एक ही बात निकली-ये क्या कर रहे हो। इस बात का भी बेअंत ने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता।
लेकिन तभी संतरी बूथ पर खड़े सतवंत की स्टेनगन भी इंदिरा गांधी की तरफ घूम गई। जमीन पर नीचे गिरती हुईं इंदिरा गांधी पर कॉन्सटेबल सतवंत सिंह ने एक के बाद एक गोलियां दागनी शुरु कीं। लगभग हर सेकेंड के साथ एक गोली। एक मिनट से कम वक्त में सतवंत ने अपनी स्टेन गन की पूरी मैगजीन इंदिरा गांधी पर खाली कर दी। स्टेनगन की तीस गोलियों ने इंदिरा के शरीर को भूनकर रख दिया।
आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त भी मैं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था। इंदिरा जी भी नीचे देख रही थीं। मैं भी नीचे देखकर चल रहा था। बात कर रहे थे। जैसे ही सिर उठाया तो देखा बेअंत सिंह जो गेट पर था उसने अपनी रिवॉल्वर से गोलियां चलानी शुरू कर दीं। गोलियां चलनी शुरू हुईं तो इंदिरा जी उसी वक्त जमीन पर गिर गईं। तभी सतवंत सिंह ने गोलियों की बौझार शुरू कर दी। जब वो दृश्य मेरे सामने आता है तो दिमाग पागल हो जाता है।

जब पीएम के लिए ऐंबुलेंस तक नहीं मिली
 हेड कान्सटेबल नारायण सिंह हो या आर के धवन। सब हक्के-बक्के थे। वक्त जैसे थम गया था। दिमाग में खून जमने जैसी हालत थी। तभी बेअंत सिंह ने आर के धवन की ओर देखकर कहा- हमें जो करना था वो हमने कर लिया। अब तुम जो करना चाहो, वो करो। वहां मौजूद सभी लोग एक झटके के साथ होश में आए। आर के धवन के मन में एक ही बात आई। इंदिरा को जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाया जाए। वो जोर से चीखे-एंबुलेंस।
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। पास में खड़े एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट ने तुरंत बेअंत और सतवंत को काबू में ले लिया। उनके हथियार जमीन पर गिर गए। उन्हें तुरंत पास के कमरे में ले जाया गया। एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट कहते हैं कि उस वक्त जो हो सकता था किया गया लेकिन चूंकि वो इतना अचानक और अनपेक्षित था कि उसको याद करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
 अब तक छाता लेकर भौचक्क खड़ा रहा हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह भी हरकत में आया। उसने छाता फेंका और डॉक्टर को बुलाने के लिए दौड़ पड़ा। एक अकबर रोड के लॉन में इंदिरा का इंतजार करते हुए आइरिश डेलिगेशन को फायरिंग की आवाज अजीब सी लगी। फिर उन्हें लगा कि शायद एक बार फिर दीवाली के पटाखे फोड़े गए हैं। डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव वहीं पर इंदिरा का इंतजार करते रहे।
इधर आर के धवन ने इंदिरा को उठाने की कोशिश की। तभी बुरी तरह घबराई हुईं सोनिया गांधी भी वहां पहुंच गईं। तब तक कई दूसरे सुरक्षाकर्मी भी उस गेट के पास पहुंच चुके थे। धवन और सोनिया ने मिलकर इंदिरा को उठाया। आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त तो यही दिमाग काम किया कि उनको एकदम से हॉस्पिटल ले जाया जाए। मैंने उस वक्त एक एंबुलेंस जो वहां रहती थी उसे बुलाया लेकिन एंबुलेंस नहीं आई। पता चला उसका ड्राइवर चाय पीने गया हुआ था।
एंबुलेंस के पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए सोनिया-आर के धवन और बाकी सुरक्षाकर्मी इंदिरा गांधी को लेकर एक सफेद एंबेसेडर कार तक पहुंच गए। तय हुआ कि कार से ही इंदिरा को एम्स लेकर जाया जाए। इंदिरा गांधी का सिर सोनिया ने अपनी गोद में रखा। उनके शरीर से लगातार खून बह रहा था।
  इस बीच उस कमरे से एक बार फिर फायरिंग की आवाज आई जिसमें सुरक्षाकर्मी बेअंत और सतवंत को लेकर गए थे। यहां बेअंत ने एक बार फिर हमला करने की कोशिश की थी। उसने अपनी पगड़ी में छिपाए चाकू को बाहर निकाल लिया। बेअंत और सतवंत दोनों ने इस कमरे से भागने की कोशिश की लेकिन जवाबी कार्रवाई में सुरक्षाकर्मियों ने बेअंत को वहीं ढेर कर दिया। सतवंत को भी 12 गोलियां लगीं लेकिन उसकी सांसें चल रही थीं।
गोलियों का शोर थमा तो एक और शोर शुरू हुआ। उस सफेद एंबेसेडर के स्टार्ट होने की आवाज जिसमें इंदिरा गांधी को लिटाया गया था। सोनिया एक टक इंदिरा की तरफ देख रही थीं। दूर खड़े आयरिश फिल्म मेकर पीटर उस्तीनोव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। सुरक्षाकर्मी तेजी के साथ एक तरफ से दूसरी तरफ भाग रहे थे। लॉन में हड़कंप मचा हुआ था। पीटर उस्तीनोव ने एक इंटरव्यू में कहा है-उस वक्त एक अकबर रोड की चिड़ियां और गिलहरियां भी अजीब बर्ताव कर रही थीं। सात मिनट के अंतर पर दो बार फायरिंग की जोरदार आवाज के बावजूद उन पर कोई असर नहीं था। उन परिंदों को जैसे पता था कि गोलियां उन्हें निशाना बनाकर नहीं मारी गईं।

बीबीसी ने सबसे पहले ब्रेक की खबर
   एंबेसेडर तेजी के साथ एक अकबर रोड से निकली। आगे बैठे आर के धवन, दिनेश भट्ट और पीछे सोनिया ने इंदिरा का सिर अपनी गोद में रखा हुआ था। ये वो वक्त था जब गांधी परिवार ही नहीं एक और शख्स की जिंदगी बदलने जा रही थी। बीबीसी के संवाददाता सतीश जैकब के एक दोस्त की नजर सोनिया गांधी पर पड़ गई। उस दोस्त ने तुरंत जैकब को फोन मिलाया। सतीश जैकब कहते हैं-उसने कहा कि एक सफदरजंग रोड के सामने से निकला तो इंदिरा गांधी के घर में से एक कार बाहर आई और मैं पक्का तो नहीं हूं लेकिन उसमें सोनिया गांधी बैठी हुई थीं और पता करो...क्या हुआ।
    एक मंझे हुए पत्रकार को इशारा ही काफी था। कुछ तो गड़बड़ हुई है। जैकब ने तुरंत राजीव गांधी के निजी सचिव विन्सेट जॉर्ज को फोन मिलाया। लेकिन मुश्किल ये कि आखिर जॉर्ज से खबर कैसे पता करें। सतीश जैकब कहते हैं कि जॉर्ज को मैंने फोन किया तो सोचा कि ऐसे सवाल करूं कि वो कुछ छुपा न सके। तो मैंने जॉर्ज से इतना कहा कि ज्यादा सीरियस तो नहीं है मामला। तो उसने कहा कि सीरियस तो नहीं है लेकिन एम्स ले गए हैं। मैंने कहा चलो एम्स चलकर देखते हैं।
इस बीच इंदिरा गांधी को लेकर एंबेसेडर कार तेजी से एम्स की तरफ भागती जा रही थी। वैसे तो एम्स में इंदिरा का पूरा रिकॉर्ड, उनके ब्लड ग्रुप का ब्योरा, सभी कुछ मौजूद था लेकिन अस्पताल पहुंचाने की हड़बड़ी में किसी को याद ही नहीं रहा कि एम्स फोन करके ये बता दिया जाए कि इंदिरा को गोली मारी गई है। घड़ी वक्त दिखा रही थी 9 बजकर 32 मिनट। एम्स पहुंचते ही इंदिरा गांधी को वीआईपी सेक्शन लेकर जाया गया लेकिन वो उस दिन बंद था। धवन उन्हें इमरजेंसी की तरफ लेकर भागे वहां कुछ नौजवान डॉक्टर मौजूद थे। वो मरीज को देखते ही हड़बड़ा गए। तभी किसी का दिमाग काम किया। उसने तुरंत अपने सीनियर कार्डियोलॉडिस्ट को खबर दी। वो सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट कोई और नहीं डॉक्टर वेणुगोपाल थे।
डॉक्टर वेणुगोपाल बताते हैं कि हमारे सहयोगी डॉक्टर ने बताया कि आप नीचे आ जाइए इंदिरा गांधी को लेकर आए हैं। उनको देखना है। हम उसी ड्रेस में नीचे गए थे कैजुएलिटी में। जब गए थे तो हमने देखा वो एक ट्रॉली पर लेटी हुई हैं और काफी खून बह रहा।
    इस वक्त तक बीसीसी संवाददाता सतीश जैकब भी एम्स पहुंच गए थे। एम्स में तूफान से पहले वाला सन्नाटा था। इंदिरा के शरीर से लगातार खून बह रहा था। इमरजेंसी में तब तक दर्जन भर सीनियर डॉक्टर जुट चुके थे। पहली कोशिश ये कि लगातार बहते खून को रोका जाए। इंदिरा के शरीर का तापमान भी तेजी से नीचे गिर रहा था। डॉक्टरों ने तुरंत उनके फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुंचाने वाली मशीन लगाई। ईसीजी मशीन दिखा रही थी उनका दिल मंद गति से धड़क रहा था। इसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें हार्ट मशीन भी लगा दी हालांकि उन्हें इंदिरा की पल्स नहीं मिल रही थी। धीरे-धीरे इंदिरा की पुतलियां फैलती जा रही थीं। साफ था कि दिमाग में खून पहुंचना लगभग रुक गया है।
डॉक्टरों की टीम ने उन्हें आठवें फ्लोर के ऑपरेशन थिएटर में ले जाने का फैसला किया। हालांकि जिंदगी का कोई निशान उनके शरीर में नजर नहीं आ रहा था लेकिन फिर भी 12 डॉक्टरों की टीम चमत्कार की आस में उन्हें बचाने की कोशिश में जुट गई। इधर बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब भी तेजी के साथ एम्स पहुंचे। उन्हें ये तो मालूम था कि एक अकबर रोड पर कुछ अनहोनी हुई है लेकिन वो अनहोनी क्या है ये पता करना उनके लिए बड़ी चुनौती थी।
सतीश जैकब बताते हैं कि मैं गाड़ी पार्क करके लिफ्ट से उधर गया। जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकला तो देखा एक बुजुर्ग से डॉक्टर मुंह से कपड़ा हटा रहे थे। ऐसा लगता था कि मानो ओटी से आए हों तो मैंने फिर वही किया। मैंने ये नहीं पूछा कि आप किसका क्या कर रहे हो। मैंने पूछा-सब ठीक तो है ना। जान तो खतरे में नहीं है ना। उन्होंने मुझे बड़े गुस्से में देखा। कहा कैसी बात करते हो। अरे सारा जिस्म छलनी हो चुका है तो मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। वहीं आईसीयू के बाहर आर के धवन खड़े थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था कि चिंता में हैं। वहां आर के धवन से मैंने इतना कहा कि धवन साहब, ये तो बहुत बुरा हुआ। कैसे हुआ ये तो उन्होंने कहा कि वो अपने घर से निकल पैदल आ रही थीं। वो पीछे-पीछे चल रहे थे अचानक गोलियों की आवाज आई। बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब के हाथ में अब पुख्ता खबर थी- देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोली मारी गई है। इस खबर के साथ वो तुरंत एम्स से बाहर निकल गए।

दिल के अलावा पूरा जिस्म छलनी था इंदिरा का
इधर आठवीं मंजिल के ऑपरेशन थिएटर में वेणुगोपाल और बाकी डॉक्टरों ने देखा कि गोलियों ने इंदिरा के लीवर को फाड़ दिया है। छोटी आंत, बड़ी आंत और एक फेफड़े को भी गोलियों ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया था। उनकी रीढ़ की हड्डी में भी गोलियां धंसी हुई थीं। जो एक चीज पूरी तरह सुरक्षित थी वो था इंदिरा का दिल।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि पहले तो एक ही मकसद था। उनको बचाने के लिए जहां से खून बाहर आ रहा है उनको सारे को कंट्रोल करना था। वो 4-5 घंटे लगे उनको कंट्रोल करने में। इसी टाइम पर उनका हार्ट फंक्शन, ब्रेन फंक्शन ठीक करने के लिए मशीन पर लगाया। तापमान भी कम कर दिया उनको बचाने के लिए।
लेकिन इंदिरा का शरीर उनका साथ छोड़ रहा था। डॉक्टर बड़ी बारीकी के साथ उनके शरीर से सात गोलियां निकाल चुके थे वक्त निकलता जा रहा था। डॉक्टरों के सामने एक मुश्किल इंदिरा का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप भी था। भारत में सौ लोगों में से सिर्फ एक का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप होता है। इंदिरा को बचाने के संघर्ष में डॉक्टरों ने उन्हें 88 बोतल ओ-नेगेटिव खून चढ़ाया।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि जितना कुछ हो सकता है किया। ब्लड बैंक ऑफीसर ने काफी कोशिश की। 80 से ज्यादा बोतल लाए वो। ओ नेगेटिव और ए नेगेटिव मिलाकर दिए गए। बहुत कोशिश की ताकि जितनी ब्लीडिंग हुई उसको रिप्लेस किया जा सके।लेकिन ये 88 यूनिट खून भी बहुत काम ना आया। एक तरह से इंदिरा सिर्फ मशीन के भरोसे जिंदा थीं। ये वो वक्त था जब भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टरों ने भी हथियार डाल दिए। डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि ये सब करने के बाद जब ब्लीडिंग बंद कर दी गई। तो फिर उनका हार्ट फंक्शन चालू करने की कोशिश की। जब वो बहुत देर के बाद भी नहीं हुआ तो फिर उसी वक्त हमने थोड़ी देर मशीन पर रखकर फिर फैसला करना पड़ा।

सोनिया नहीं चाहती थीं, राजीव बनें पीएम
  फैसला बहुत मुश्किल था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर कांग्रेस के दिग्गजों की भीड़ लगी हुई थी। वो मान चुके थे कि अब उनका बचना मुमकिन नहीं। उधर ऑपरेशन थिएटर के बगल वाले कमरे में एक और जद्दोजेहद चल रही थी। इंदिरा की मौत के बाद कौन बनेगा देश का प्रधानमंत्री। राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में अपना दौरा रद्द कर दिल्ली पहुंच चुके थे।
सभी की राय थी कि राजीव गांधी को ही देश की सत्ता सौंपी जाए लेकिन सोनिया गांधी अड़ी हुई थीं कि राजीव ये बात कतई मंजूर ना करें। आखिरकार राजीव ने सोनिया को कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनूं या ना बनूं दोनों ही सूरत में मार दिया जाऊंगा। राजीव के इस जवाब के बाद सोनिया ने कुछ नहीं कहा। आखिरकार दोपहर 2 बजकर 23 मिनट पर आधिकारिक तौर ये ऐलान कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर इंदिरा का पोस्टमॉर्टम करने के लिए फोरेंसिक विभाग से टी डी डोगरा को भी बुला चुके थे।
डॉक्टर टी डी डोगरा कहते हैं कि उस वक्त दोपहर के 2.10 हुए थे। मुझे बुलाकर बताया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। वहां इतनी ज्यादा भीड़ थी कि मुझे लगा लोग ऑपरेशन थिएटर का शीशा तोड़कर भीतर घुस आएंगे। हड़बड़ी में मैं अपने दस्ताने पहनने भी भूल गया था। मेरे सामने चुनौती थी कि उनका बुरी तरह जख्मी शरीर पोस्टमॉर्टम के बाद और ना बिगड़े। उनके शरीर पर गोलियों के 30 निशान थे और कुल 31 गोलियां इंदिरा के शरीर से निकाली गईं।

राष्ट्रपति की कार पर भी हुआ पथराव
  इस वक्त तक एम्स के बाहर भी हजारों लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। पुलिस वालों के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा था। हर तरफ इंदिरा गांधी के नारे गूंज रहे थे। हालत ये हो गई कि इंदिरा समर्थकों को संभालने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा। लोग इंदिरा की मौत की खबर से बुरी तरह सन्न थे और उतना ही ज्यादा फूट रहा था उनका गुस्सा। हालत ये थी कि विएना के दौरे से लौटकर सीधे एम्स पहुंचे राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर भी पथराव कर दिया गया। ये बहुत बड़े तूफान की आहट थी। लोग रो रहे थे। बिलख रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इंदिरा को भी कोई ताकत हरा सकती है। यही वो भीड़ थी जो रोते-रोते जब थक गई तो उसकी जगह गुस्से ने ली। ये गुस्सा आगे क्या करने वाला। इस बात का किसी को कोई एहसास नहीं था।
  बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब तेजी के साथ अपने दफ्तर वापस लौट रहे थे। दिल में तूफान कि इतनी बड़ी खबर है। उनका मन कर रहा था कि जितनी जल्दी हो सके ऑफिस पहुंचें। जैकब ने बताया कि हमें जो कोई भी खबर देनी होती थी वो हम टेलिफोन पर देते थे। वो हमारा रिकॉर्ड होता था तो खबर हमारी आवाज में जाती थी। एक प्रोब्लम ये थी कि उस वक्त एसटीडी वगैरह नहीं थी। इंटरनेशनल कॉल बुक करानी पड़ती थीं। उस दिन मुझे जल्दी कनेक्ट करा दिया गया। मेरे पास वक्त नहीं था टाइप करने का तो मैंने कहा कि छोटी सी खबर है। मैंने कहा-अभी थोड़ी देर पहले भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर घातक हमला हुआ है।

दूरदर्शन-आकाशवाणी पर नहीं चली खबर
ये खबर बीबीसी रेडियो पर कुछ देर बाद चली। लेकिन जब चलनी शुरू हुई तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। उस वक्त अमेरिका में आधी रात हो रही थी। जानकारी के मुताबिक राष्ट्रपति रीगन को आधी रात में इंदिरा की हत्या की खबर दी गई। अमेरिका से लेकर रूस तक में हड़कंप मच गया। इधर देश के तमाम शहरों में बड़े-बड़े अखबार हरकत में आ चुके थे। ज्यादातर पत्रकारों को उनके घर से बुला लिया गया।
अखबार की मशीनें धड़ाधड़ चलने लगीं। दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, आज, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन भारत का हर अखबार इंदिरा की हत्या की खबर से पट गया। शाम को छपने वाले तमाम अखबार उस दिन कई घंटा पहले छपे। हालत ये थी कि अखबार की कॉपी बाजार में पहुंचते की हाथों-हाथ बिक रही थी लेकिन शाम चार बजे तक दूरदर्शन और आकाशवाणी पर इंदिरा की हत्या की कोई खबर नहीं थी। दुनिया भर में इस खबर का डंका पीटने वाले सतीश जैकब ने खुद ये बात आकाशवाणी के एक अधिकारी से पूछी।
   सतीश जैकब ने बताया- वो कहने लगे भाई मैं क्या करूं। इतनी बड़ी खबर है और जब तक कि कोई सीनियर मिनिस्टर या अधिकारी इसको अप्रूव नहीं कर देता मैं इसको ब्रॉडकास्ट नहीं कर सकता। तो मैंने कहा कि क्यों नहीं कराया अप्रूव तो उन्होंने कहा कि प्रेसिडेंट यमन में हैं। होम मिनिस्टर प्रणब मुखर्जी राजीव के साथ पश्चिम बंगाल में हैं। उनका कहना था यहां कोई भी मिनिस्टर दिल्ली में नहीं है, तो मैं क्या करूं। बीबीसी के लिए ये भारत में बहुत अहम दिन था। पूरा देश इंदिरा की हत्या की खबर बार-बार सुनने के लिए जैसे बीबीसी रेडियो से चिपक गया था। खुद पश्चिम बंगाल से दिल्ली तक के रास्ते में राजीव गांधी भी बीच-बीच में बीबीसी पर ही खबरें सुनते आ रहे थे।

सिखों पर उतरने लगा इंदिरा की हत्या का गुस्सा
सुबह से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका था। मैंने देखा कि एम्स में एक अजीब सा तनाव बढ़ता जा रहा था। सैकड़ों की तादाद में वहां सिख भी आए थे। पहले इंदिरा गांधी अमर रहे के नारे भी लगा रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो एम्स से हटने लगे। जैसे-जैसे लोगों को ये पता चला कि इंदिरा की हत्या उनके ही दो सिख गार्डों ने की है। नारों का अंदाज भी बदलने लगा। राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर पथराव के बाद इन नारों की गूंज एम्स के आसपास के इलाकों में भी फैलती जा रही थी।
   दोपहर ढलते-ढलते एम्स से वापस लौटते लोगों ने कुछ इलाकों में तोड़फोड़ भी शुरू कर दी थी। हॉस्पिटल के पास से गुजरती हुई बसों में से सिखों को खींच-खींच कर बाहर निकाला जाने लगा। दिल्ली में बरसों से रह रहे इन लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि कभी उनके खिलाफ गुस्सा इस कदर फूटेगा। धीरे-धीरे बसों से सिखों को खींचकर निकालने का सिलसिला पूरी दिल्ली में फैल गया लेकिन लोगों का गुस्सा यहीं नहीं थमा। पहला हमला 5 बजकर 55 मिनट पर हुआ विनय नगर इलाके में। यहां एक सिख लड़के को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी मोटरसाइकिल में आग लगा दी गई। इस आग में पूरी दिल्ली धधकने जा रही थी।
    उस वक्त के हालात का अंदाजा लगना मुश्किल है। एक के बाद एक दुकानों के शटर गिर रहे थे। इंदिरा की मौत की घोषणा के बाद पूरे के पूरे बाजारों में सन्नाटा पसर गया। सड़कों पर चल रही गाड़ियां ना जाने कहां गायब हो गईं। ऐसा लगा जैसे कर्फ्यू लगा दिया गया हो लेकिन इस सन्नाटे के बीच सिख विरोधी नारे लगातार बढ़ते जा रहे थे। 31 अक्टूबर के सूरज ने दिन भर में बहुत कुछ देख लिया था। डूबते सूरज की लाल रोशनी भी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी लेकिन सूरज के डूबने के बाद भी लाल रोशनी खत्म नहीं हुई। जलते हुए घरों से उठती हुई रोशनी...वो भी तो लाल ही थी।