शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

डीजीसीए के पत्र से प्रदेश नागरिक उड्डयन विभाग में खलबली

डीजीसीए के पत्र से प्रदेश नागरिक उड्डयन विभाग में खलबली
राजेन्द्र जोशी
देहरादून  । उत्तराखण्ड में आई प्राकृतिक आपदा में निजी कंपनियों के हैलीकाप्टर को लगाए जाने को लेकर भारत सरकार के महानिदेशक नागरिक उड्डयन विभाग ने प्रदेश सरकार ने रिपोर्ट तलब की है कि उसने कितने हैलीकाप्टर आपदा राहत कार्या में लगाए और उन्होंने कितनी उड़ाने भरी और इसमें कितना तेल खर्च हुआ। महानिदेशक के पत्र के बाद प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग में खलबली मची हुई है, क्यांेकि एक जानकारी के अनुसार आपदा प्रभावितों और जागरूक नागरिकों ने महानिदेशक नागरिक उड्डयन (डीजीसीए) को इस बात की शिकायत की है कि प्रदेश में निजी हैलीकाप्टरों के आपदा काल के दौरान अधिग्रहण किए जाने में बहुत बड़ा घोटाला हुआ है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार ये हैलीकाप्टर गुप्तकाशी, फाटा, गौचर और जौलीग्रांट सहित सहस्त्रधारा हैलीपैड़ पर तैनात किए गए थे। सूत्रों से यह भी जानकारी मिली है कि नागरिक उड्डयन विभाग को दी गई सूचना के मुताबिक प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग ने आपदा प्रभावित क्षेत्र में एक हैलीकाप्टर द्वारा 17 से 19 उड़ाने दस्तावेजों में दिखाई है, जबकि वास्तव में इन उड़ानों की संख्या सात से उपर नहीं हो सकती थी, ऐसा उड्डयन विशेषज्ञों का मानना है। उड्डयन विशेषज्ञों का कहना है कि केदारघाटी इतनी संकरी घाटी है कि वहां तीन हैलीकाप्टर से एक साथ उड़ान नहीं भर सकते हैं, ऐसे में प्रदेश सरकार द्वारा भारत सरकार के नागरिक उड्डयन महानिदेशक को दी गई जानकारी खुद नागरिक उड्डयन विभाग के अधिकारियों के गले नहीं उतर रही है। वहीं इसमें एक पेंच और फंस गया है कि प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग द्वारा हैलीकाप्टर में प्रयोग होने वाला ईंधन की आपूर्ति प्रदेश में उतनी हुई ही नहीं, जितनी की दस्तावेजों में प्रदर्शित की गई है। एक जानकारी के अनुसार 23 जून के बाद ही प्रदेश के कुछ स्थानों तक हैलीकाप्टर में प्रयोग होने वाला ईंधन हैलीकाप्टरों के बेस स्टेशन तक पहुंच पाया था, ऐसे में डीजीसीए के गले यह बात भी नहीं उतर रही है कि प्रदेश सरकार द्वारा खपत में बताया गया ईंधन और वास्तविक ईंधन की खपतमें बड़ा गोलमाल है। वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार द्वारा यह ऐलान किया गया था कि उसने निजी कंपनियों के हैलीकाप्टरों को अधिग्रहित कर लिया था, जिसका भुगतान राज्य सरकार को करना था। ऐसे में यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि जब राज्य सरकार द्वारा निजी कंपनियों के हैलीकाप्टरों को अधिग्रहित कर लिया गया था, तो निजी कंपनियों के हैलीकाप्टर प्रचालन कंपनियों ने यात्रियों से कैसे किराए की वसूली की, क्योंकि हर्षिल, फाटा और जोशीमठ से निकाले गए कई यात्रियों ने इस बात की शिकायत मीड़िया से की कि, जो हैलीकाप्टर उन्हें रेस्क्यू करने जौलीग्रांट अथवा सहस्त्रधारा हैलीपैड़ लाए हैं, उनमें से अधिकांश हैलीकाप्टरों ने उनसे तीन लाख से लेकर 18 लाख तक की वसूली की है। आपदा काल में फंसे यात्रियों द्वारा इस तरह की तमाम शिकायतों को लेकर डीजीसीए सक्रिय हुआ है और उसने प्रदेश सरकार ने आपदा काल के दौरान प्रयुक्त किए गए हैलीकाप्टर पर रिपोर्ट तलब की है, डीजीसीए के इस पत्र के बाद प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग के अधिकारियों की नींद उड़ी हुई है।

इंतजार, इंतजार और इंतजार

                                                    इंतजार, इंतजार और इंतजार


राजेन्द्र जोशी
देहरादून। आपदा प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की किसमत में शायद इंतजार ही लिखा है, महाप्रलय के बाद बिछड़े अपनों का इंतजार कर रहे हैं, तो अपने बिछड़ों का। कोई मृतकों की सूची का इंतजार कर रहा है, तो कोई हादसे में घायल लोगों के ठीक होने का इंतजार। महाप्रलय के बाद इनका इंतजार कब खत्म होगा, उसका भी वे इंतजार ही कर रहे हैं।
    गौरतलब हो कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों के लोग आपदा के बाद राहत का इंतजार करते-करते थक चुके हैं। उनके पास दो जून की रोटी का भी जुगाड़ नहीं रह गया है। जिन खेतों से उनकी दिनचर्या चलती थी, वे पानी के साथ बह गए हैं। बस उन्हें इंतजार है तो सरकारी इमदाद का। तीर्थयात्री जो अपने को खो चुके हैं, उनको इंतजार है सरकार के द्वारा मृतक सूची में अपनों का नाम शामिल होने का। आपदा प्रभावित क्षेत्रों के लोग, आपदा में घायल हुए लोग अपने ठीक होने का इंतजार कर रहे हैं, तो कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपनों को खो दिया है, वे अपनों के घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। देश के श्रद्धालु केदारनाथ में पूजा का इंतजार कर रहे हैं, तो संत केदारनाथपुरी के सफाई का इंतजार। रावल भीमाशंकर लिंग मंदिर के शुद्धिकरण का इंतजार कर रहे हैं, तो मंदिर के पुजारी भगवान केदार के एक बार फिर पुर्नस्थापन का इंतजार कर रहे हैं। कुल मिलाकर केदारपुरी को अपने श्रद्धालुओं का इंतजार है और श्रद्धालुओं को केदारपुरी तक पहुंचने का। महाप्रलय के बाद जिन गांवों का मुख्य मार्ग से संपर्क कट गया, उनको आपदा राहत का इंतजार तो है, साथ ही उन सड़कों और पगडंडियों के ठीक होने का भी इंतजार है। प्रदेश सरकार वर्षा के रूकने का इंतजार कर रही है, तो आपदा राहत कार्याें में लगी टीम केदारनाथ तक पहुंचने के लिए हैलीकाप्टर का इंतजार। आपदा ग्रस्त क्षेत्रों के लोग उस अधिसूचना का भी इंतजार कर रहे हैं, जिसमें आपदा प्रभावित क्षेत्र चिन्हित हों, इतना ही नहीं केदारघाटी में निरीक्षण को जाने वाली आर्केलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (ए.एस.आई.) की टीम भी चार दिन इंतजार करके वापस दिल्ली लौट गई। मौसम के ठीक होने का इंतजार सरकार भी कर रही है, सरकार इंतजार कर रही है नदियों में पानी के कम होने का। आपदा राहत शिविरों में रह रहे लोग इंतजार कर रहे हैं अपनो घरों में पहुंचने का, तो बीते 38 दिनों से मार्ग खुलने का इंतजार कर रही है क्षेत्र की जनता। कुल मिलाकर उत्तराखण्ड इंतजार के दिन गिन रहा है, वह इंतजार कब खत्म होगा इसी आस में उस समय का भी इंतजार कर रहे हैं लोग।

उत्तराखंड सरकार की इन गलतियों से विकराल हुई आपदा

उत्तराखंड सरकार की इन गलतियों से विकराल हुई आपदा

उत्तराखंड में आए सैलाब के बाद तबाही इतनी विकराल नहीं होती, यदि राज्य सरकार ने गलतियां दर गलतियां ना की होती. चार धाम में आए सैलाब को 18 दिन हो चुके हैं और अब भी लोग पहाड़ पर फंसे हुए हैं. इनमें ज्यादातर स्थानीय लोग बताए जा रहे हैं. पूरे देश ने पहाड़ का जो दर्द झेला है, उसमें विजय बहुगुणा की सरकार ने 10 बड़ी गलतियां की हैं. यह सही है कि कुदरत के कहर पर किसी का वश नहीं, लेकिन विजय बहुगुणा सरकार ने ऐसी गलतियां की, जिसने पहाड़ पर आई त्रासदी को और भी विकराल बना दिया.
त्रासदी से पहले मौसम विभाग का अलर्ट नजरअंदाज किया
मौसम विभाग ने पहाड़ पर आए सैलाब से दो दिन पहले ही तबाही की चेतावनी दे दी थी, लेकिन सरकार कान में तेल डालकर सोई रही. ना तो लोगों को खतरे से बाहर निकाला गया और ना ही किसी को मौत के करीब जाने से रोका गया. इसके बाद जो हुआ, उसे देखकर पूरा देश रो पड़ा.
त्रासदी की गंभीरता समझने में सरकार नाकाम
चार धाम में आए सैलाब की गंभीरता अगर सरकार ने समझी होती तो जरूरतमंद लोगों तक समय पर मदद पहुंचाई जा सकती थी. लेकिन इसकी जगह सरकार मौतों का आंकड़ा देने में जुटी रही.
आपदा के बाद तीन दिन बाद तक हरकत में नहीं आई सरकार
उत्तराखंड सरकार ने त्रासदी की गंभीरता समझने और रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू करने में काफी वक्त लगा दिया. तीन दिन तक सरकार हरकत में नहीं आई. और ये ही वजह है कि जो लोग पहाड़ से लौटे वो सेना और सुरक्षाबलों की जय-जयकार करते नजर आए.
आपदा के बाद राहत कार्यों में देरी की
आमतौर पर जुलाई से पहाड़ पर बारिश शुरू हो जाती है, चट्टानें खिसकने लगती हैं, आपदा की आशंका बढ़ जाती है. यह हादसा सिर्फ पंद्रह दिन पहले हुआ. बावजूद इसके सरकार के पास कोई तैयारी नहीं थी.
तीर्थयात्रियों की हिफाजत करने में नाकाम
चार धाम में आए सैलाब में होटल के होटल बह गए, जिनमें तीर्थयात्री खचाखच भरे हुए थे. लेकिन पहले से चेतावनी होने के बावजूद लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में सरकार चूक गई.
राहत कार्यों में प्रशासन नजर नहीं आया
राहत कार्यों में प्रशासन की सबसे ज्यादा जरूरत थी, लेकिन वही नदारद रहा. सरकार से उम्मीद थी कि स्थानीय प्रशासन के जरिए लोगों की मदद की जाती, लेकिन ऐसा देखने को नहीं मिला.
सेना, सुरक्षा एजेंसियों से तालमेल नहीं
विपदा में फंसे लोगों तक पहुंचने के लिए सेना और सुरक्षाकर्मियों ने रास्ता बना लिया, लेकिन पूरे मिशन में वो उत्तराखंड सरकार ही गायब रही, जिसे पहाड़ पर बने हर रास्ते का पता था.
18 दिन बाद भी हजारों लोग लापता
आपदा जितनी बड़ी थी, नाकामी उससे भी विकराल दिखी. हजारों लोग अब भी अपनों की तलाश में जुटे हैं, लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं.
स्थानीय लोगों के पुनर्वास का प्लान नहीं
पहाड़ पर बसे और रास्ते में फंसे लोगों को राहत मिले तो कैसे, जब शिविरों की हालत ही खस्‍ता है. पुनर्वास पूरी तरह सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.
राहत की जगह सियासत में उलझे रहे
लोगों को राहत पहुंचाने की जगह उत्तराखंड सरकार सियासत में ज्यादा उलझी रही. विजय बहुगुणा ने अपने मंत्रियों को मोर्चे पर भेजने की जगह विरोधी पार्टियों को जवाब देने में लगाए रखा. ऐसे में हालात तो बिगड़ने ही थे.

राहत सामग्री के ढेर के बीच पीड़ित बेहाल


यूनाईटेड युवा फोर्स - मिशन उत्तराखंड आपदा राहतराहत सामग्री के ढेर के बीच पीड़ित बेहाल


डॉ. सुशील उपाध्याय

पूरा देश राहत-सामग्री भेज रहा है, लेकिन उत्तराखंड का सरकारी तंत्र इसे स्वीकार करने में ही आनाकानी कर रहा है। आपदा के दो सप्ताह बाद भी सरकार के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो राहत सामग्री को पहाड़ के उन
                                                         फोटो:-  यूनाईटेड युवा फोर्स - मिशन उत्तराखंड आपदा राहत के सदस्य
लोगों तक पहुंचा सके जो अब भी जिंदगी-मौत के बीच झूल रहे हैं। एक ओर, उत्तराखंड में राहत-सागग्री से भरे ट्रकों की जहां-तहां भरमार हो गई जबकि, दूसरी तरफ आपदा का शिकार हुए लोग अब भी जिंदगी के जरूरी संरजामों के लिए बाट जोह रहे हैं।
उत्तराखंड त्रासदी में जिंदा बचे उन सभी लोगों को अब सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है जो दूसरे प्रदेशों से यहां आए थे। अब, स्थानीय लोग और उनकी मुसीबतों के पहाड़ यहां मौजूद हैं। पूरा देश मदद भेज रहा है, लेकिन उन लोगों तक पहुंच ही नहीं पा रही है, जिन्हें इसकी तत्काल जरूरत है। उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में खाद्य वितरण प्रणाली भी ठप हो गई है। इस आपदा में सार्वजनिक खाद्य वितरण की 600 से अधिक दुकानें बंद हो गई हैं क्योंकि उन तक राशन नहीं पहुंच रहा है। 
सरकारी आंकड़े को सही मान लें तो 200 गांवों के लोगों को तत्काल मदद की जरूरत है। वैसे, गंभीर रूप से प्रभावित होने वाले गांवों की संख्या 200 से कहीं अधिक है। इनमें से 16 गांव ऐसे हैं जहां कई दिन से खाना उपलब्ध नहीं है। मदद के मामले में दो बड़ी बातें सामने आ रही हैं। एक, लोगों द्वारा जो मदद भेजी जा रही है, वह उपयोगी नहीं है। मसलन, गर्मी के दिनों में मैदानी क्षेत्रों में पहने वाले कपड़े, खाने का पैकेट, ब्रेड-बिस्किट का कोई उपयोग नहीं है। वजह यह है कि आपदा वाले इलाकों में इस वक्त ठंड है। वहां पुराने कपड़ों की बजाय यदि कंबल भेजे जाएं तो वे ज्यादा उपयोगी होंगे। कुछ भावुक और संवेदनशील लोग फल भी भेज रहे हैं, लेकिन वे रास्ते में ही सड़ जा रहे हैं। इनके स्थान पर फूड सप्लीमेंट के पैकेट भेजें तो वे लंबे समय तक काम आ सकेंगे और ज्यादा उपयोगी भी रहेंगे।
सरकार बता रही है कि 20 हजार मकान ध्वस्त हुए हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि 20 हजार से ज्यादा परिवारों के पास दैनिक जिंदगी चलाने के न्यूनतम साधन भी नहीं हैं। इन्हें सामान्य घरों में रसोई में काम आने लायक बर्तनों के सेट की जरूरत है। इसके अलावा यदि हजार-दो हजार टेंट तंबू का इंतजाम भी हो जाए तो लोगों को तात्कालिक तौर पर ही सही, लेकिन बड़ी मदद मिल जाएगी। पीड़ितों को पैक्ड या तैयार खाने की बजाय राशन के ऐसे पैकेटों की जरूरत है जिसमें आटा, चावल, मिली-जुली दालें, घी या तेल का पैकेट, सूखा दूध, नमक-हल्दी, मोमबत्ती, माचिस, टॉर्च और चाय की पत्ती का पैकेट शामिल हो। राशन इतना जरूर हो जिसे चार लोगों का परिवार न्यूनतम दो सप्ताह उपयोग कर सके। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि अब जो पीड़ित हैं वे स्थानीय लोग हैं, उन्हें अपनी जिंदगी को यहीं पर आगे बढ़ाना है। ऐसे हालात में ऐसी सामान-सामग्री की जरूरत है जिसका उपयोग दो-चार सप्ताह हो सके। 
अब, राहत सामग्री से जुड़े दूसरे पहलू को देखें जो ज्यादा चिंताजनक है। देश के विभिन्न हिस्सों से पहुंची राहत सामग्री देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश और कोटद्वार आदि में अटकी हुई है। वजह यह है कि उक्त सामग्री ट्रकों में भेजी गई है और पहाड़ में सड़के बर्बाद हो चुकी हैं इसलिए वहां ट्रक पहुंच नहीं पा रहे हैं। देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी जिलों में निचले स्थानों पर राहत-सामग्री के ढेर लगे हुए हैं। प्रभावित इलाकों में पीड़ित प्रतीक्षा कर रहे हैं और नीचे सरकार के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो इस सामग्री को जरूरतमंदों तक पहुंचा सके। सरकार ने इसका जिम्मा जिलाधिकारियों पर डाल दिया है। जिलाधिकारियों ने उपजिलाधिकारियों और तहसीलदारों को यह काम सौंप दिया और इन अधिकारियों ने राजस्व कर्मियों को ड्यूटी सौंप दी है। यानि, सारे काम पटवारी या लेखपाल को करने है जो कि संभव ही नहीं है।
कुल मिलाकर परिणाम यह है कि कई सौ ट्रक प्रदेश में जहां-तहां लदे खड़े हुए हैं। बाहर से सामग्री लेकर आए लोगों की यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे इसे किसको सौंपकर जाएं। दिल्ली में उत्तराखंड भवन राहत सामग्री लेने से इनकार कर चुका है। दून, हरिद्वार और पौड़ी जिले के डीएम भी सामग्री को रिसीव करने से हाथ खड़े कर चुके हैं। सरकार के पास इस काम के लिए न तो कर्मचारी हैं और न ही पर्याप्त संख्या में छोटे वाहन ताकि ट्रकों से उतारकर इस सामग्री को प्रभावित इलाकों में लोगों तक पहुंचाया जा सके। स्थिति की विद्र्रुपता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि राहत सामग्री लेकर आए लोग अब इसे हरिद्वार-ऋषिकेश में भिखारियों, झुग्गी-बस्तियों और राह चलते लोगों को बांट रहे हैं। 
घटना के एक पखवाड़े बाद भी प्रदेश में ऐसी कोई एजेंसी काम नहीं कर रही है जो राहत सामग्री को रिसीव करती और फिर आपदा पीड़ितों की जरूरत के अनुरूप इसके पैकेट बनवाकर प्रभावित इलाकों में भिजवाती। फिलहाल, राहत सामग्री के ट्रकों से जहां-तहां जाम लगा हुआ है और पहाड़ में कई लाख लोगों की जिंदगी दांव पर लगी हुई है। यदि, जल्द यह सामग्री उन तक न पहुंची तो मरने वालों की सूची और लंबी हो जाएगी। ऐसे हालात में यह भी जरूरी हो गया है कि कोई भी सामग्री भेजने से पहले उत्तराखंड के अफसरों से जरूर पूछ लें कि वे इसे स्वीकार करेंगे या नहीं।

गंगा के रौद्र रूप में छिपे कई राज

गंगा के रौद्र रूप में छिपे कई राज
राजेन्द्र जोशी
देहरादून। ‘‘राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते‘‘ गंगा के रौद्र रूप और उसमें बहते गंदले पानी को देखकर बालीवुड के मशहूर फिल्म निर्माता राजकपूर की वह फिल्म ‘‘राम तेरी गंगा मैली‘‘ का यह टाईटल सौंग याद आ जाता है। गौमुख से लेकर गंगा सागर तक महाराजा भगीरथ के अथक प्रयासों से निकाली गई यह गंगा आज भले ही विकराल रूप लेकर बह रही है, लेकिन गंगा की इस विनाशलीला के लिए हम खुद भी जिम्मेदार हैं।
देश के उच्चतम न्यायालय ने वर्षों पहले उत्तर प्रदेश सरकार से लेकर उत्तराखण्ड व गंगा के मार्ग में आने वाले उन तमाम राज्यों को चलाने वाले अधिकारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों व मुख्यमंत्रियों को साफ-साफ बता दिया था कि गंगा तट के दोनों ओर 200-200 फीट तक किसी भी तरह का निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए, लेकिन सफेदपोश और ब्यूरोक्रेट्स के साथ भूमाफियाओं के गठजोड़ ने गंगा को इतना संकुचित कर दिया कि उसके पास बहने के लिए स्थान की कमी होने लगी। बीते 72 घण्टो के दौरान उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में गंगा और उसकी सहायक नदियों का जल स्तर इतना बढ़ा की उसने खुद ही गंगा तट से लगभग 200-200 फीट में बने उन तमाम पुलों, सड़कों सहित होटलों, लॉजों और मकानों को लील लिया। गंगा के बहाव क्षेत्र में गौमुख से लेकर हरिद्वार तक अल्कापुरी बांक से लेकर देवप्रयाग तक और अन्य सहायक नदियों ने उसके बहाव में बाधा उत्पन्न कर रहे उन सभी निर्माणों को ध्वस्त कर दिया, जिसे मानव ने प्रकृति के विरूद्ध निर्मित किया था। उत्तराखण्ड की धरती से निकली उपजाऊ मिट्टी और उसके साथ बहकर जा रहे खजिन सम्पदा ने गंगा क्षेत्र की भूमि को उपजाऊ बनाया है।
गंगा में आई बाढ़ से भले ही गौमुख से लेकर हरिद्वार तक लोगों का जीवन मुहाल किया हो, लेकिन गंगा के इस रौद्र रूप ने इस क्षेत्र के लोगों सहित प्रदेश सरकार को यह संदेश भी दिया है कि वे उसके बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण न करें अन्यथा उनका वह विनाश कर देगी।
गंगा के इस संदेश को प्रदेश की सरकार और गंगा तटों पर अतिक्रमण कर रहे भूमाफियाओं और सफेदपोश व अफसरशाही के गठजोड़ को समझना होगा कि प्रकृति के न्याय के सामने उनकी ताकत कुछ भी नहीं है और गंगा ने यह संदेश भी दिया है कि प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ और गंगा तटों पर उग रहे कंक्रीट के जंगल को अब वह बख्शने वाली नहीं, लिहाजा अब सरकार और अतिक्रमण कारियों को चाहिए कि वह गंगा तटों से दूर हट जाएं। जहंा तक गंगा तटों पर अतिक्रमण कर बनाए गए निर्माण और बहने के बाद उनके मुआवजे की बात है तो यह गेंद अब सरकारों के पाले में है कि वह इस तरह के अवैध निर्माण पर प्रभावित लोगों की जेबें कितनी गरम करती हैं।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

पहली बार श्रावण मास में केदारधाम में नहीं किया श्रद्धालुओं ने जलाभिषेक

पहली बार श्रावण मास में केदारधाम में नहीं किया श्रद्धालुओं ने जलाभिषेक
राजेन्द्र जोशी
देहरादून। देश के इतिहास में शायद यह पहला श्रावण माह है, जब भगवन केदारनाथ के मंदिर में कोई जलाभिषेक नहीं हुआ। हालांकि बीते दिन कुछ राजनीतिक दलों के लोगों ने वहां जलाभिषेक का नाटक तो किया, लेकिन धर्माचार्यों ने उनके जलाभिषेक को इसलिए नकार दिया कि केदारनाथ मंदिर का अभी शुद्धिकरण नहीं हुआ है, लिहाजा ऐसे में जलाभिषेक का कोई औचित्य नहीं।
    देश के इतिहास में यह पहला मौका है, जब शिव के 12वें ज्योर्तिलिंग में श्रावण मास में जलाभिषेक की परंपरा टूटी हो। इससे पहले प्राचीनकाल से शिव के द्वादश ज्योर्तिलिंग में श्रावण के पहले सौमवार से जलाभिषेक के लिए देश-विदेश से आए श्रद्धालुओं का वो हुजूम उमड़ता था कि केदारपुरी में तिल रखने की जगह भी नहीं होती थी। श्रावण में शिव के ज्योर्तिलिंग पर जलाभिषेक का विशेष महत्व है, इसी महत्व को देखते हुए श्रद्धालु शिव के मंदिरों में जलाभिषेक ही नहीं करते, बल्कि शिवलिंग का पंचगब्य स्नान भी करते रहे हैं। इस बार 16-17 जून को आए महाप्रलय ने श्रद्धालुओं को शिव के द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक भगवान केदारधाम के शिवालय में जल चढ़ाने का अवसर अपने श्रद्धालुओं से छीन लिया। शिवधाम में सन्नाटा पसरा हुआ है और बोल बम, हर-हर महादेव, जय केदारबाबा के नारे जो कभी पिछले वर्ष तक यहां सुनाई देते थे, वे इस बार नहीं सुनाई दे रहे हैं। केवल केदारधाम से एक किलोमीटर उपर भैरव बाबा के मंदिर में जरूर रोज पूजा-अर्चना पूर्व की भांति अभी भी की जा रही है, लेकिन वह मंदिर भी सूना-सूना है, क्योंकि केदारधाम की यात्रा तब ही पूरी मानी जाती थी, जब श्रद्धालु भैरव बाबा के दर्शन करने के बाद केदारनाथ धाम में जलाभिषेक कर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान के दरबार में सर नवाते थे।
    हालांकि बीते दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित, कृषि मंत्री, भाजपा नेता उमा भारती, भगत सिंह कोश्यारी और डा. रमेश पोखरियाल निशंक सहित तमाम राजनेताओं ने द्वादश ज्योर्तिलिंग के दर्शन तो किए, लेकिन धर्माचार्यों की नजर में वह गलत था, धर्माचार्यों के अनुसार जब तक केदार मंदिर परिसर का शुद्धिकरण नहीं हो जाता और विधिविधान से जब तक वहां पूजा-अर्चना शुरू नहीं हो जाती, तब तक जलाभिषेक का कोई औचित्य नहीं है। वहीं केदारधाम के रावल का कहना है कि केदारधाम की सफाई होने तक श्रावण के बावजूद जलाभिषेक का कार्यक्रम उखीमठ स्थिति ओमकारेश्वर मंदिर में किया जाएगा। उन्होंने बताया कि ओमकारेश्वर मंदिर में भगवान केदार की विगृह मूर्ति शीतकाल में रखी जाती है और यह स्थान भी केदारनाथ का शीतकालीन गद्दी के रूप में प्राचीन समय से पूज्यनीय रहा है। उन्होंने कहा कि केदारधाम के शुद्धिकरण के बाद मंदिर में जल्द ही पूजा शुरू कर दी जाएगी।

मुख्यमंत्री के लिए वरदान, प्रदेशवासियों के लिए अभिशाप बनी आपदा

मुख्यमंत्री के लिए वरदान, प्रदेशवासियों के लिए अभिशाप बनी आपदा


प्रदेश सरकार के खिलाफ आम जन का विरोध स्वाभाविक
राजेन्द्र जोशी
देहरादून, 22 जुलाई। 16-17 जून को आई आपदा भले ही प्रदेश के लिए घातक साबित हुई, लेकिन यह आपदा मुख्यमंत्री के लिए वरदान साबित हुई। मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद से लगातार मुख्यमंत्री विरोधियों के स्वर तीखे होते चले गए और आपदा से एक सप्ताह पूर्व तक कांग्रेस विधायकों में से लगभग दो दर्जन विधायक मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत पर उतर आए थे। आपदा राहत कार्याें के बाद एक बार फिर मुख्यमंत्री पर प्रदेश की जनता का आक्रोश आपदा बनकर फूट रहा है। जहां तहां मुख्यमंत्री कैबिनेट के मंत्रियों और अधिकारियों का प्रदेश की जनता विरोध कर रही है, क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रदेश सरकार ने जितनी तेजी से तीर्थयात्रियों को निकालने का काम किया, उतनी तेजी से उसने स्थानीय आपदा प्रभावितों को भुला दिया है। इसी का खामियाजा प्रदेश सरकार को भुगतना पड़ सकता है।
    गौरतलब हो कि आपदा से एक सप्ताह पूर्व तक प्रदेश के लगभग दो दर्जन विधायक मुख्यमंत्री से इसलिए नाराज हो गए कि वे अपनी-अपनी विधानसभा क्षेत्रों में विकास कार्याें में प्रदेश सरकार द्वारा शिथिलता को लेकर मुख्यमंत्री पर अपना गुस्सा उतार रहे थे। वहीं इन विधायकों के सुर में सुर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल के मिलाए जाने के बाद स्थिति और भी गंभीर हो गई, जबकि केंद्रीय मंत्री हरीश रावत ने भी विधायकों और विधानसभा अध्यक्ष की बातों में मुहर लगाते हुए प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था। इस राजनैतिक घटनाक्रम से परेशान होकर आखिरकार मुख्यमंत्री को दिल्ली दरबार में हाजिरी लगानी पड़ी और सूत्रों का तो यहां तक दावा है कि यदि प्रदेश में 16-17 जून को आपदा न आती तो, राज्य में 23 जून को मंत्रिमण्डल में व्यापक फेरबदल होने वाला था। पुख्ता सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इस मंत्रिमण्डल परिवर्तन में एक-दूसरे से संबंध रखने वाले विभागों को एक ही मंत्री को देने और स्वास्थ्य मंत्रालय सुरेन्द्र सिंह नेगी से हटाकर डा. हरक सिंह रावत को दिए जाने पर पूरी तरह सहमति बन चुकी थी, लेकिन आपदा ने ऐन मौके पर आकर मुख्यमंत्री विरोधियों की मुहिम को झटका दे डाला और यह आपदा राजनैतिक कारणों से मुख्यमंत्री के लिए वरदान बन गई।
    आपदा प्रबंधन के सरकार के दावे इस आपदा ने पूरी तरह से नकार दिए और प्रदेश सरकार पर आपदा प्रबंधन में विफल रहने के आरोप जमकर लगे, इतना ही नहीं राज्य के राजनैतिक जानकारों का कहना है कि जितनी तेजी से आपदा के एक सप्ताह बाद प्रदेश सरकार ने केदारनाथ, गौरीकुण्ड, रामबाड़ा, गुप्ताकशी, मुनिस्यारी, धारचूला, हेमकुण्ड, गोविंदघाट और ब्रदीनाथ में फंसे यात्रियों को निकालने में सेना की मदद तेजी दिखाई, वहीं अब स्थानीय लोगों ने सरकार की आपदा प्रबंधन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के अधिकांश दूरस्थ इलाकों में आज भी खाद्यान और जरूरी सामान की भारी कमी है, तो वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा बनाए गए आपदा राहत गोदामों में खाद्यान सड़ रहा है। आपदा प्रबंधन में सामंजस्य न होने की बात तीर्थयात्री भी स्वीकार चुके हैं, अब स्थानीय लोग प्रदेश सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों सहित प्रदेश मंत्रिमण्डल के सदस्यों का जगह-जगह इसलिए विरोध कर रहे हैं कि उन्हें आपदा के 35 दिन बाद भी खाना और कपड़े की व्यवस्था प्रदेश सरकार नहीं कर पाई है। इतना ही नहीं प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का भी बहुत बुरा हाल हैं, गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के चलते सड़कों पर बच्चे जनने को मजबूर हैं, इतना ही नहीं गंभीर बीमारीयों से ग्रसित प्रदेश के स्थानीय लोग चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में तिल-तिल कर जीवन जी रहे हैं, ऐसे में प्रदेश सरकार के खिलाफ आम जन का विरोध स्वाभाविक नजर आता है।
    भले ही प्रदेश सरकार आपदा राहत कार्याें में पूरी शिद्दत के साथ जुड़े होने की बात करती है, लेकिन इस 16 जून से आज तक प्रदेश सरकार द्वारा किए गए राहत कार्य प्रदेश की जनता का विश्वास अर्जित नहीं कर पाए हैं। यही कारण है कि प्रदेश की जनता सरकारी नुमाइंदों के विरोध पर उतर आई है।

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

आपदा से बचने के बाद आखिर कहां गए वो!

                                                     आपदा से बचने के बाद आखिर कहां गए वो!
राजेन्द्र जोशी
देहरादून। लखनऊ की प्रजापति परिवार की महिला, नोएडा में रहने वाली रूचि के पिता और न जाने कितने उत्तराखण्ड में आई आपदा के बाद बच तो गए, लेकिन आज तक उनका कहीं कोई पता नहीं है और न ही सरकार ने ऐसे लोगों को ढूंढने की कोशिश की जो प्रकृति के प्रलय के बाद बच तो गए थे, लेकिन उसके बाद न जाने कहां गुम हो गए। लखनऊ की प्रजापति परिवार की इस महिला का आखिरी फोटो 21 जून को बद्रीनाथ में एक सैन्य अधिकारी के सामने गिडगिड़ाते हुए, बेबसी, लाचारी और दर्द का अहसास कराते हुए देखा जा सकता है।
एक महीने बाद भी ऐसे हजारों लोग हैं, जो न तो वापस लौटे और न ही उनके शव ही अभी तक मिले हैं। वहीं ऐसे लोगों की अभी तक गुमशुदगी भी कहीं दर्ज हो पाई होगी, इसमें संदेह है। 21 जून को प्रजापति परिवार की इस महिला की फोटो पत्रकार दानिश सिद्दकी ने बद्रीनाथ में उस वक्त खींची थी, जब वे सेना के एक हैलीकाप्टर से बद्रीनाथ पहुंचे थे। दानिश सिद्दकी ने बीबीसी की वंदना को बताया कि उस दिन मैं सेना के हैलीकाप्टर से बद्रीनाथ के इस इलाके पहुंचा था, बहुत छोटा सा हैलीकाप्टर था, जिसके द्वारा लोगों को निकाला जा रहा था, उन्होंने कहा कि मेरी नजर इस महिला पर पड़ी जो बहुत बुरी तरह रो रही थी औरी सैनिक से कह रही थी कि मुझे जाने दीजिए, लेकिन वह सैनिक इतना बेबस था कि वह उसे नहीं ले जा सकता था, क्योंकि उसे उसके उच्चाधिकारियों के आदेश थे कि सबसे पहले बुजुर्गों और जख्मी लोगों को ले जाना है। दानिश सिद्दकी ने कहा कि वह यह साफ कह सकते हैं कि मेरे वहां से जाने तक वह महिला सुरक्षित थी और उसे किसी तरह की चोट भी नहीं थी। दानिश ने बताया कि एक अखबार में तस्वीर छपने के बाद महिला के परिजनों ने किसी तरह उनका नंबर ढूंढ निकाला और वह इस उम्मीद के साथ मुझसे बात करने लगे कि शायद कुछ सुराग मिल जाए, लेकिन बद्रीनाथ से वह महिला कहां गई, इसका आज तक कुछ पता नहीं चल पाया है। दानिश ने यह भी बताया कि महिला का भाई इस बात को लेकर बहुत परेशान है कि जब उसकी बहन बद्रीनाथ में सुरक्षित थी और लोगों को वहां से हैलीकाप्टर से निकाला जा रहा था, तो आखिर वह उसके बाद से कहां गायब हो गई। यह तो केवल आपदा की एक बानगी है, न जाने कितने परिवारों की ऐसी कहानी होगी, जिनके मां, बहन, बच्चे, बुजुर्ग अभी भी अपनों का इंतजार कर रहे होंगे। ठीक इसी तरह नोएडा की रहने वाली रूचि के पिता भी उत्तराखण्ड से लापता हैं। पिता की तलाश में जुटी रूचि ने बीबीसी को फोन किया और बीबीसी फोटोग्राफर सज्जाद हुसैन जिसने उनकी फोटो खींची थी, उनसे संपर्क किया। इसके बाद रूचि और उसके मां के मन में अपने पिता के जिंदा होने की आस बंधी थी, लेकिन जब सज्जाद ने उन्हें बताया कि जिनकी फोटो उन्होंने खिंची थी, वह रूचि के पिता जैसे तो थे, लेकिन रूचि के पिता नहीं थे।
प्रकृति के प्रकोप के शिकार बने न जाने देश के ऐसे कितने लोग हैं, जो आज भी अपनों को ढूंढ रहे हैं। वहीं इनमें से कुछ परिवार को ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिलों में पत्थर रखकर खुद को समझाना शुरू कर दिया है कि शायद अब उनके अपने कभी नहीं लौटंेगे।

जनता त्रस्त, मंत्री हवाई दौरों में मस्त

जनता त्रस्त, मंत्री हवाई दौरों में मस्त

राजेन्द्र जोशी
देहरादून  । जहां एक ओर आपदा प्रभावित क्षेत्रों में महिलाएं प्रसव पीड़ा से तड़प रही हैं, लोगों के पास खाने के लिए अन्न नहीं है, आने-जाने के लिए मार्ग इतने क्षतिग्रस्त हो चुके हैं कि इनमें पैदल चलना भी जान को जोखिम में डालना है, ऐसे में प्रदेश सरकार के मंत्री अपनी छवि चमकाने के लिए हैलीप्टरों का सहारा लेकर आपदा ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। आपदा का आज एक माह पूरा हो गया, आज तक पहाड़ के दुर्गम इलाकों में न तो खाद्यान्न ही पहुंच पाया है और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं। देहरादून सचिवालय के वातानुकूलित कमरों में बैठकर मुख्यमंत्री और मंत्री आपदा राहत के नाम पर भले ही बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, लेकिन पहाड़ों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। आपदा के बाद अपनी जान बचा चुके स्कूली बच्चे अपने स्कूलों को ढूंढ रहे हैं, तो अध्यापक छात्रों को। ऐसी स्थिति में पहाड़ों पर पढ़ाई भी भगवान भरोसे ही है।
उल्लेखनीय है कि भले ही आज तक उत्तराखण्ड सरकार राज्य में आए महा जलप्रलय में बचाव व राहत का कार्य पूरा न कर पाई हो, लेकिन सरकार के मंत्री हवाई दौरों का रिकार्ड बनाने में जुटे हैं, ऐसे ही एक मंत्री ने गुप्तकाशी में नियम विरूद्ध एक दिन पूर्व केदारधाम में जबरन अपना हैलीकॉप्टर उतरवाया और बुधवार को दिल्ली से आई एक मीडिया कर्मी को गुप्तकाशी से हैलीकॉप्टर के द्वारा देहरादून तक पहंुचवाया। वहीं तीन दिन से गुप्तकाशी हैलीपैड़ पर मौजूद रामबाड़ा के दर्जनों वाशिंदे गौरीकुंड जाने की आस लगाये बैठें हैं, लेकिन उन्हें हैलीकॉप्टर नसीब नहीं हो पा रहा है। जिस कारण उनके परिवारों की गर्भवती महिलाओं के सामने भी जीवन-मरण का संकट आ खड़ा हुआ है। इतना ही नहीं गुप्तकाशी के लोगों के मन में इस बात को लेकर भी काफी नाराजगी है कि जब वह प्रशासन से खाद्य सामग्री मांगने के लिए जाते हैं तो उनसे पहले पूछा जाता है कि उनके घर का कौन सा सदस्य इस आपदा मंे मरा है। प्रदेश में दैवीय आपदा क्या आई, सरकार के कुछ नेताओं को तो मानो हवाई सैर सपाटा करने का चस्का लग गया। पहाड़ों   में आज भी हजारों वाशिंदे खाने के एक-एक दाने के लिए तरस रहे हैं। जहां हवाई मार्ग से खाद्य सामग्री पहंुचाने के लिए भले ही सरकार आगे न आ रही हो लेकिन गुप्तकाशी में इन दिनों प्रदेश के एक मंत्री जमकर हवाई सैर सपाटा करने में लगे हुए हैं। रेस्क्यू ऑपरेशन चलाने के लिए हेलीकाप्टर की व्यवस्था की गई है, लेकिन गुप्तकाशी में एक हेलीकॉप्टर में सरकारी मशीनरी के बजाए एक मंत्री हवाई सैर करने में लगे हुए हैं। उन्हें इन दिनों मीडिया में छाने का चस्का सा लग गया है। सूत्रों का कहना है कि सोमवार की शाम मंत्री जी ने नियम विरूद्ध तरीके से हैलीकॉप्टर केदारधाम में उतरवाया और उसके अगले दिन उसे गुप्तकाशी ले जाया गया। गुप्तकाशी में सड़क मार्ग जहां खराब हालत में हैं वहीं आज तक सरकार इस इलाके में बिजली तक बहाल नहीं करा पाई है। गुप्तकाशी के आसपास के गांवों में खाद्यान्न व दवाईयों का एक बड़ा संकट आकर खड़ा हो रखा है। बताया जा रहा है कि रामबाड़ा गांव के 10-12 ग्रामीण पिछले तीन दिन से गुप्तकाशी हैलीपैड पर गौरीकुंड जाने के लिए राह देख रहे हैं लेकिन इन्हें बहाना बनाकर हैलीकॉप्टर से गौरीकुंड तक नहीं ले जाया जा रहा है। गुप्तकाशी का हाल देखकर साफ तौर पर झलक रहा है कि वहां प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं है और सब कुछ भगवान भरोंसे चल रहा है। गुप्तकाशी के लोगों मंे इस बात को लेकर भी काफी नाराजगी है कि जब वह खाद्यान्न लेने के लिए प्रशासन के पास जाते हैं तो उनसे पूछा जाता है कि उनके घर का कौन व्यक्ति मरा है उसके बाद ही उसे राशन दिया जाएंगा। सरकार सचिवालय में बैठकर दावे कर रही है कि पहाड़ों में खाद्यान्न सामग्री पहंुचाई जा रही है और प्रशासनिक अमला सही ढं़ग से काम कर रहा है। सरकार ने ग्राम प्रधानों से जानकारी लेने की पहल की है लेकिन जिस तरह से बर्बाद हो चुके पहाड़ के हजारों बाशिंदे खाने-पीने के सामान के लिए तरस रहे हैं उससे साफ नजर आ रहा है कि सरकार सिर्फ मुआवजा राशि देकर अपना पिंड़ इस आपदा से छुड़ाने में लगी हुई है। सवाल उठ रहे हैं आखिरकार सरकार में ढे़ड साल पूर्व दावा किया था कि अधिकारी पहाड़ के दूरदराज के गांवों में डेरा डालेंगे लेकिन प्रदेश में जब आपदा आई तो सरकार ने तमाम अधिकारियों को आखिरकार क्यों पहाड़ों में डेरा डालने का हुक्म नहीं दिया, यह भी सरकार की मंशा पर सवाल खड़ें कर रहा हैं। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द खण्डूरी इन दिनों आपदा ग्रस्त इलाकों के दौरे पर है। बीते रोज उन्होंने गुप्तकाशी व उसके आसपास के इलाकों का दौरा करने के बाद वहां सरकार द्वारा पहंुचाई जा रही आपदा राहत सामग्री की हकीकत अपनी आंखों से देखी तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस आपदा में उजडें ग्रामीणों को खराब गेंहू व चावल दिया जा रहा है तथा अधिकांश गांवों में आज तक सरकार राहत तक नहीं पहंुचा पाई। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखण्ड को बनाने के लिए सरकार कितनी गभीर हो रखी है।

मुआवज़े के बीच अपनों का इंतज़ार

मुआवज़े के बीच अपनों का इंतज़ार


उत्तराखंड सरकार फ़ाइलों में लापता लोगों को मृत मानकर उनके परिजनों को मुआवज़ा देने की प्रक्रिया शुरू कर रही है, वहीं लापता लोगों के परिजनों के लिए इस सच्चाई को स्वीकार करना इतना आसान नहीं है.
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा है, "15 जुलाई तक 5,748 लोगों को मुआवज़ा देने की प्रक्रिया सोमवार से शुरू कर दी जाएगी. इस आपदा में मारे गए राज्य सरकार के कर्मचारियों के परिजनों को 16 जुलाई को मैं चेक दूंगा."
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के अनुसार 15 जुलाई तक लापता लोगों की संख्या 5,748 है जिन्हें स्थाई रूप से लापता मानकर राहत राशि दे दी जाएगी.
मुख्यमंत्री का कहना था कि लोगों को एक हलफनामा भरकर देना होगा कि उनके परिजन किस तारीख को आए थे और कब और कहां से लापता हुए और ये कि घर वापस नहीं लौटे हैं.
मुआवज़ा
साथ में इंडेमिनिटी बॉंड भी भरकर देना होगा कि अगर उनके परिजन लौट आते हैं तो वो राहत राशि लौटा देंगे. इसी आधार पर उन्हें राहत राशि दे दी जाएगी.
इसी हलफनामे और बॉन्ड के आधार पर एलआईसी और अन्य बीमा कंपनियों से कहा गया है कि वो प्रभावित लोगों का इंश्योरेंस क्लेम दे दे. सोमवार को स्थानीय समाचारपत्रों में छपे कुछ बीमा कंपनियों के विज्ञापन में भी इसका उल्लेख है.
दरअसल भारतीय दंड संहिता के आधार पर 7 वर्षों तक लापता रहने के बाद ही किसी को मृत माना जा सकता है लेकिन उत्तराखंड की आपदा को विशेष स्थिति मानकर सरकार ने आपदा की तिथि से एक महीने तक लापता रहने वाले लोगों को मृत मानते हुए राहत राशि देने का फ़ैसला किया है क्योंकि क़ानूनन सरकार इतनी जल्दी उन्हें मृतक प्रमाणपत्र नहीं दे सकती है.
मुख्यमंत्री ने कहा, "हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि वो जीवित हैं या नहीं लेकिन वो घर नहीं लौटे हैं और उनके परिजनों को राहत देने के लिए मौद्रिक राहत का वितरण शुरू कर दिया जाएगा. और जो लापता हैं और उनकी खोज जारी रहेगी."
हालांकि मुख्यमंत्री के इस बयान को महज़ सांत्वना की औपचारिकता माना जा रहा है.
इंतज़ार जारी रहेगा
दूसरी ओर अब भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने परिजनों के इंतज़ार में हैं और उनके सब्र का बांध टूट चुका है. उनकी शिकायत है कि सरकार उन्हें ढूंढने में कोई मदद नहीं कर रही है.
अमेठी से आए अभिषेक कहते हैं "मेरे माता-पिता 41 लोगों के साथ केदारनाथ आए थे. वो दर्शन करके गौरीगांव लौट आए थे. उनके साथ गया एक व्यक्ति जीवित लौट आया और उसने बताया कि वो लोग वहां जीवित हैं लेकिन सरकार उन्हें निकालकर नहीं लाई."
अभिषेक का कहना है, "या तो सरकार कह दे कि वो मेरे माता-पिता को ढूंढ नहीं सकती या हमें पैसा दे. हम ख़ुद जाकर उन्हें खोजेंगे. मुआवज़ा लेकर मैं क्या करूंगा."
इसी तरह कानपुर से नवनीत मिश्र ने बीबीसी को फ़ोन पर बताया, "मुआवज़ा लेने के बारे में क्या कहूं, इस बारे में कुछ सोच नही पा रहा हूं. हमें तो अब भी उम्मीद है."
नवनीत की बहन इस आपदा की भेंट चढ़ गई जिनके शव की पहचान हो गई लेकिन उनके परिवार के 10 और लोग हैं जिनका अब तक पता नहीं चल पाया है.
यह सूची अंतिम नहीं
हालांकि सरकार से जारी 5,748 लोगों की इस सूची को अभी अंतिम और वास्तविक नहीं माना जा सकता. इसके तीन प्रमुख कारण हैं.
पहला ये कि सूची अभी तक पूरी तरह सत्यापित नहीं हो पाई है. आंध्र प्रदेश, जम्मू कश्मीर और पांडिचेरी की सरकारों ने अपने यहां से लापता लोगों की सूची सत्यापित कर दी है लेकिन उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से आई लापता लोगों की सूची के सत्यापन का काम अभी भी चल ही रहा है.
दूसरा कारण ये कि अभी तक लापता लोगों की सूचनाएं पहुंच ही रही हैं. मिसिंग सेल के अनुसार 14 जुलाई को ही गुजरात से कुछ और लापता लोगों के नाम भेजे गए हैं और इसी तरह बिजनौर से भी दो और लोगों के गुमशुदा होने की सूचना लिखाई गई है.
तीसरा बड़ा कारण ये है कि कई लापता लोग ऐसे होंगे जिनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट ही नहीं लिखाई गई होगी जैसे भिखारी, साधु, घोड़े और खच्चरवाले और वैसे लोग जो इस प्रक्रिया से ही अनजान होंगे और दूसरी वजहों से अक्षम होंगे.
सत्यापन के काम में कंप्यूटर विशेषज्ञों और मोबाइल ट्रेसिंग की भी मदद ली जा रही है. इससे जुड़े कर्मचारियों का कहना है कि शायद इस प्रक्रिया को पूरा होने में और दो सप्ताह का वक्त लग सकता है लेकिन साथ ही उनका ये भी कहना है कि जब तक राहत राशि पूरी तरह बंट नहीं जाती, तब तक लापता लोगों की संख्या पर अंतिम तौर पर कुछ कहना कठिन होगा.

पोल खुलने की डर से हादसे की जांच कराने से मुकरी सरकार !

पोल खुलने की डर से हादसे की जांच कराने से मुकरी सरकार !
राजेन्द्र जोशी
देहरादून, 11 जुलाई। उत्तराखण्ड में 16-17 जून को आई भीषण तबाही का सच आखिर क्यों छिपाना चाह रही है सरकार यह सवाल प्रदेशवासियों जेहन में बार-बार कौंध रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा केदारनाथ हादसे पर जांच न बैठाए जाने की घोषणा के बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि प्रदेश सरकार कुछ तो छिपा रही है। लोगों का तो यहां तक कहना है कि इस तबाही की जिम्मेदार प्रदेश सरकार है और वह क्यों जांच कराएगी।
    मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के ताजा बयान कि ‘‘केदारनाथ हादसे की जांच नहीं होगी‘‘ पर जहां एक ओर राजनैतिक माहौल गरमा गया है, वहीं प्रदेशवासी भी मुख्यमंत्री की इस घोषणा से खासे नाराज हैं। प्रदेशवासी जानना चाहते हैं कि यह दैवीय आपदा थी या प्राकृति प्रकोप। वहीं देश यह भी जानना चाहता है कि हादसे में मरने वालों की संख्या सरकार द्वारा बताए गए मरने वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है। वहीं सरकार यह भी बहाना बनाकर अपनी नाकामी को छिपाना चाह रही है, जो उसने आपदा से चार दिन तक हाथ पर हाथ धरे बैठे किया। वहीं कई सवाल अब भी खड़े हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा कि जब 17 जून को हैलीकाप्टर पाईलेट ने प्रदेश के प्रमुख सचिव राकेश शर्मा को सूचना दे दी थी कि केदारनाथ में भारी तबाही हुई है, तो सरकार 19 तारीख तक क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे रही, वहीं यह सवाल भी उठ खड़ा हो रहा है कि चार धाम यात्रा शुरू होने के दौरान ही सरकार ने रूद्रप्रयाग जिले से युवा जिलाधिकारी को क्यों बदला। उल्लेखनीय है कि डा. नीरज खैरवाल के स्थान पर प्रदेश सरकार ने विजय ढ़ौंडीयाल को आपदा से कुछ ही दिन पूर्व रूद्रप्रयाग जिले का जिलाधिकारी बनाया था। वहीं यह सवाल भी उठ खड़ा हो रहा है कि 16-17 जून हादसे के बाद जब जिलाधिकारी रूद्रप्रयाग विजय ढ़ौंडीयाल की तबीयत खराब हुई तो पांच दिनों तक रूद्रप्रयाग जिले को बिना जिलाधिकारी के क्यों रखा गया। वहीं यह भी एक सवाल उठ खड़ा हो रहा है कि हादसे से दो दिन पूर्व केदारनाथ में खच्चरों की हड़ताल के चलते जब भारी संख्या में वहां यात्री एकत्रित होने शुरू हो गए तो प्रशासन ने यात्रियों को वहां से निकालने के प्रयास क्यों नहीं किए। यदि जिला प्रशासन द्वारा अथवा प्रदेश सरकार द्वारा यात्रियों को वहां से निकाल लिया जाता तो हादसे में कम मौते होती। वहीं यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि जब केदारनाथ में खच्चर और घोड़े वालों की हड़ताल जारी थी, ऐसे में फाटा और अगस्तमुनी से हैलीकाप्टरों के उड़ान पर किस अधिकारी द्वारा रोक लगाई गई। वहीं यह सवाल भी सामने आ रहा है कि किस मंत्री के निर्देश पर ऋषिकेश से चार धाम यात्रा के लिए बनी संयुक्त रोटेशन यातायात समिति को भंग किया गया। यहां यह भी जानकारी सामने आई है कि समिति के भंग हो जाने के बाद चार धाम, दो धाम और एक धाम यात्रा पर गए वाहनों में यात्रियों की सूची नहीं थी, जिससे यह पता चल पाए कि कौन सा वाहन रूद्रप्रयाग से केदारनाथ मार्ग पर गया और उसमें कितने यात्री और कहां के यात्री सवार थे। यह सवाल भी निकलकर आया है कि सरकार के पास चार धाम यात्रा पर गए यात्रियों का कोई लेखा जोखा नहीं है। वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डा. रमेश पोखरियाल निशंक सहित नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट सहित समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद बड़थ्वाल व जनता दल यूनाईटेड के नेताओं ने सरकार से केदारनाथ हादसे पर श्वेत पत्र की मांग की है। भाजपा सहित तमाम राजनैतिक दलों ने सरकार पर आरोप लगाया है कि वह जान बूझकर अपनी कमियांे को छिपाने को लेकर केदारनाथ हादसे की जांच करने से पीछे हट रही है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार को पता है कि उसने हादसे के दौरान आपदा एवं राहत कार्याें को लेकर लापरवाही बरती है। वहीं प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाठकर ने उत्तराखण्ड में नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि आपदा के वक्त राहत एंव बचाव कार्य में सरकार पूरी तरह नाकाम रही है, सरकार के अधिकारी गलत बयानबाजी कर गलत आंकड़े पेश कर रहे हैं, इतना ही नहीं सरकारी तंत्र राहत सामग्री लेकर पहुंच रहे लोंगों और संस्थाओं के बीच समन्वय बनाने तक में नाकाम साबित हुआ है। उन्होंने कहा कि आपदा के बाद पहाड़ के लोगों का सब कुछ बर्बाद हो गया है, लेकिन सरकार अभी भी हाथ पर हाथ धरे बैठी है। उन्होंने कहा कि पहाड़ के दुर्गम इलाकों में लोग भूखे हैं, जिन क्षेत्रों में राहत सामग्री बांटी जा रही है, वह पर्याप्त नहीं है। उन्होंने आपदा की विस्तृत जांच किए जाने की मांग भी की। उन्होंने सरकार के अधिकारियों पर आरोप भी लगाया कि वे राहत लेकर आ रहे लोगों को अब मदद न किए जाने की बात कहकर वापस लौटा रहे हैं। वहीं बुद्धिजीवीयों का कहना है कि सरकार को केदारनाथ त्रासदी पर एक जांच आयोग का गठन कर जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हों।

प्रधानमंत्री ने कैबिनेट समिति बनाकर मुख्यमंत्री के कतरे पर!

 प्रधानमंत्री ने कैबिनेट समिति बनाकर मुख्यमंत्री के कतरे पर!
राजेन्द्र जोशी
देहरादून, 11 जुलाई। आजादी के बाद से देश के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री की अक्षमताओं को लेकर केंद्र ने केंद्रीय कैबिनेट की एक समिति का गठन किया हो। उल्लेखनीय है कि देश के इतिहास में पहली बार किसी आपदा को लेकर केंद्र सरकार ने केंद्रीय मंत्रियों की एक समिति बनाई और उसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री को महज स्थाई आमंत्रित सदस्य के रूप में स्थान दिया है। गौरतलब हो कि बीते दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य के पुर्ननिर्माण और पुर्नवास कार्या को लेकर एक विशेष 14 सदस्यी समिति का गठन किया है। जिसके अध्यक्ष स्वंय प्रधानमंत्री होंगे, इस समिति में रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी, कृषि मंत्री शरद पंवार, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद, गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे, सड़क परिवहन मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस, कानून मंत्री कपिल सिब्बल, आवास मंत्री गिरिजा व्यास, ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और जल संसाधन मंत्री हरीश रावत को शामिल किया गया है, जबकि योजना अयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार उपाध्यक्ष एम शशिधर रेड्डी सहित उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को स्थाई   आमंत्रित सदस्य बनाया गया है।
    राज्य में आई आपदा के बाद से प्रदेश सरकार पर लगातार आपदा राहत कार्यों में हिलाहवाली सहित आपदा के दिन से चार दिन तक असहाय सा बने रहना केंद्र को नागवार गुजरा है। वहीं प्रदेश का दौरा कर वापस लौट चुके राहुल गांधी की रिपोर्ट को भी प्रदेश सरकार के खिलाफ बताया गया है। इतना ही नहीं तीर्थयात्रियों की संख्या को लेकर व मरने वालों की वास्तविक संख्या को लेकर प्रदेश सरकार अभी भी कटघरे में है, जबकि आपदा और राहत कार्याें सहित खाद्यान्न की सप्लाई के मामले में भी सरकार फिसड्डी साबित हुई है। वहीं यह भी उल्लेखनीय है कि आपदा के 27 दिन बाद अभी तक प्रदेश के चार धाम यात्रा मार्ग पूरी तरह से नहीं खुल पाए हैं, यह भी सरकार की अक्षमता को प्रदर्शित करता है। वहीं मनमोहन और सोनिया के दौरे के बाद केंद्र सरकार ने प्रदेश में अपना प्रतिनिधि पूर्व गृह सचिव वी.के. दुग्गल को भी राहत एवं बचार्व कार्य की देखरेख के लिए लगाया था। उनकी रिपोर्ट भी प्रदेश की अफसरशाही व नेताओं के बीच सामंजस्य न होना और आपदा प्रभावित क्षेत्रों में सरकार की लापरवाही को लेकर केंद्र को गई है। इन सबको देखते हुए आखिकार केंद्र सरकार ने आपदा एवं राहत कार्याें के बाद राज्य के पुर्ननिर्माण और पुर्नवास के कार्याें को अपने हाथों में लेकर यह जता दिया है कि वह भी प्रदेश सरकार के कार्याें से खुश नहीं है। हालांकि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा केंद्रीय 14 सदस्यी विशेष कमेटी को राज्य के पुर्ननिर्माण में मददगार बता रहे हैं, लेकिन इस समिति के गठित हो जाने के बाद यह साफ है कि केंद्र ने मुख्यमंत्री के पर कतर दिए हैं। यह समिति राज्य में पुर्ननिर्माण और पुर्नवास कार्याें पर जहां नजर रखेगी वहीं उत्तराखण्ड में हुए व्यापक नुकसान और उसके पुर्ननिर्माण पर होने वाले खर्च पर निगरानी रखेगी। गौरतलब हो कि उत्तराखण्ड में हुए जलप्रलय के बाद प्रधानमंत्री ने राहत एवं बचाव कार्याें के लिए एक हजार करोड़ के पैकेज के साथ ही ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 340 करोड़ रूपये का पैकेज और केंद्र के अन्य मंत्रालयों और सरकारी संस्थाओं ने उत्तराखण्ड पुर्ननिर्माण और पुर्नवास कार्याें के लिए और भी मदद देने की घोषणा की है।
    वहीं दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय सचिव त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि उत्तराखण्ड में आपदा के बचाव और राहत कार्याें के लिए आई धनराशि में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने की आशंका थी, इसी आशंका पर प्रधानमंत्री ने मुहर लगाते हुए केंद्रीय मंत्रियों की निगरानी कमेटी बनाई है।

उत्तराखंड में 210 सालों के इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी दैवीय आपदा

उत्तराखंड में 210 सालों के इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी दैवीय आपदा

हिमालयी क्षेत्र का जनजीवन खतरे में....





सन 1797 की तबाही के बाद सन 1803 में आये प्रलयकारी भूकंप ने जहाँ उस समय उत्तराखंड की दो तिहाई जनता को अपने आगोश में ले लिया था जिसने भयंकर अकाल झेला. तत्कालीन समय में भले ही संसाधन इतने सुलभ नहीं थे और न ही विश्व समुदाय का परिचय इतना प्रगाढ ही था कि सूचना क्रान्ति के माध्यम से तत्काल कुछ राहत कार्यों को अंजाम देकर स्थितियां सुधार ली जाती, लेकिन आज फिर वही स्थितियां बनती दिखाई दे रही हैं. भले ही अकाल ना भी पड़े लेकिन जिन लाशों का अम्बार केदारघाटी में लगा हुआ है और उन्हें चील कौवे खुले आम नोंच रहे है, बदबू सारे वायुमंडल में फ़ैल रही है. तब उस से उत्पन्न होने वाले वायु संक्रमण से कई प्रकार के रोग फैलने से इनकार नहीं किया जा सकता।
हिमालयी क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थितियों व संवेदनशील भूगर्भीय संरचना के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों के हो रहे अंधाधुंध दोहन के चलते हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता और अधिक बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप में क्षेत्र में हर वर्ष आपदा के रुप में बड़ी-बड़ी घटनाएं सामने आ रही हैं।
अभी केदारघाटी में घटित दैवीय आपदा थमी भी नहीं है कि कुमाऊँ मंडल का जिले बागेश्वर इसकी चपेट में आ गया है जिसके लगभग 175 गांव दैवीय आपदा के संकट से जूझ रहे हैं। सबसे ज्यादा प्रभावी क्षेत्र धारचूला का है जो नेपाल देश से देश कि सीमायें बांटता है। 18 अगस्त 2010 में बागेश्वर जिले के सुमगढ़ गांव में बादल फटने से स्कूल के 18 मासूमों का जिंदा दफन हो जाना हमें हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता से रुबरु कराता है। उससे भी पिछले वर्ष 8 अगस्त 2009 को मुनस्यारी के ला झकेला गांव में हुई बादल फटने की घटना ने पूरे गांव को जमींदोज कर दिया था। इस घटना में 48 लोग मारे गए थे, जिसमें से अब तक घटना में मारे गए लोगों के शव नहीं मिल पाए हैं। ऐसे में हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में रह रहे लोगों के पुर्नवास को लेकर हमेशा से उठते आए सवालों को फिर से बल मिल रहा है। साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों की संकरी घाटियों व नदियों के किनारे बसे गांवों का संवेदनशीलता को देखते हुए उनका भूगर्भीय सर्वे किए जाने की बात भी प्रमुखता से सामने आ रही है। इन क्षेत्रों का व्यापक अध्ययन के बाद यहां रह रहे लोगों का यदि पुर्नवास किया जाता है तो इससे हिमालयी क्षेत्र में आपदा की घटनाओं के दौरान होने वाले नुकसान व जनहानि को कम किया जा सकता है।
भू-गर्भीय हलचलों के बारे में भू-गर्भीय वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर चेतावनी देने के बावजूद भी हर वर्ष बरसात शुरू होते ही छोटी बड़ी घटनाएं होती ही रही जिन्हें प्रदेश में आती जाति सरकारें एक कान से सुनकर दुसरे कान से बाहर निकाल दिया करती थी लेकिन लगभग दो शताब्दियों के पश्चात हुई इतनी बड़ी जन हानि ने सिर्फ प्रदेश सरकार ही नहीं बल्कि विश्व पटल के उन सभी देशों को जरुर चौकन्ना रहने की चेतावनी दे दी है जो हिमालयी क्षेत्र के करीब हैं. विगत 16-17 जून को चार धाम क्षेत्र में हुई हज़ारों कि संख्या में मौतों ने सबको दहलाकर रख दिया है. सबसे बड़ी त्रासदी केदार घाटी को झेलनी पड़ी है।
  पिछले 52-53 वर्षों कि अगर बात करें तो दैवीय आपदाएं घटने कि जगह निरंतर बढती ही जा रही हैं. पर्याप्त संसाधनों के बावजूद भी यह आपदा बिन बताये आने वाली आपदा होती है जो अपने साथ सबको कालग्रास बना लेती है चाहे बूढा, जवान बच्चा हो या फिर अमीर गरीब। लाख चेतावनियों के बावजूद भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते हैं और फिर शुरू होता है तबाही का ऐसा मंजर जिसे देख रूह तक कांपने लगती है. सन 1961 के बाद से आई आपदाओं की अगर बात करें तब जाकारी मिलती है कि इन दैवीय आपदाओं ने अब तक कितनी जानें लील ली हैं. जुलाई 1961 में धारचूला में आई दैवीय आपदा में 12 मौतें हुई, जबकि अगस्त 1968 में तवाघाट में 22 लोग मारे गए. जुलाई 1973 में कुर्मी में 37, अगस्त 1989 में मद्महेश्वर में 109, जुलाई 2000 में खेतगॉव में 5, अगस्त 2002 में टिहरी गढ़वाल की गंगा घाटी में 29, जुलाई 2003 में डीडीहाट में 4, जुलाई 2004 में लाल गगड़ में 7, 12 जुलाई 2007 में देवपुरी में 8, 5 सितम्बर 2007 में बरम (धारचूला) में 10, 6 सितम्बर 2007 में लधार (धारचूला) में 5, 17जुलाई 2008 में अमरुबैंड में 17, 8 अगस्त 2009 में ला झकेला में 45, 18 अगस्त 2010 में  सुमगढ़ (बागेश्वर) में 18 लोगों कि मौत हो चुकी है. वर्ष 2013 में अभी सरकार द्वारा दैवीय आपदा से मरने वालों के स्पष्ट आंकड़े सामने नहीं लाये गए हैं, फिर भी मरने वालों कि संख्या एक अनुमान के आधार पर 20 से 25 हज़ार बतायी जा रही है. अभी बरसात का शुरूआती चरण है और शुरुआत में ही ऐसी तबाही ने देश और प्रदेश को भयातुर कर झकझोर दिया है. अब भी अगर हम नहीं चेत पाए तो आगामी समय में इससे बड़ी आपदा के लिए हमें कमर कसकर झेलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. वर्ष 1803 के बाद यह पूरे प्रदेश की सबसे बड़ी आपदा के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी है।

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

एक माह में भी नहीं लगा आपदा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम

एक माह में भी नहीं लगा आपदा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम
राजेन्द्र जोशी
देहरादून  । उत्तराखण्ड में महाप्रलय के एक माह होने को हैं, लेकिन इस एक माह में न तो सरकार आज तक आपदा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगा पाई है और न ही आपदा प्रभावितों के जीवन को पटरी पर लाने का ही उसने कोई प्रयास किया है। इतना ही नहीं अभी तक चार धाम यात्रा मार्ग ही खुल पाया है, वहीं सरकार जलप्रलय में हताहत हुए श्रद्धालुओं की संख्या को ही स्पष्ट कर पाई है। परिणामस्वरूप इस महा जलप्रलय में पूरी तरह से तबाह हो गये हजारों गांव के बाशिंदों में सरकार के खिलाफ एक बड़ी नाराजगी देखने को लगातार मिल रही है। सरकार दावे करती आ रही है कि आपदा पीड़ितों को  खाद्यान्न सामग्री, दवाईयां व राहत दी जा रही है लेकिन हकीकत यह है कि सरकार के इन दावों की पोल लगातार आपदा मंे उजड़ चुके गांववासी खोल रहे हैं। उनके मन में सरकार के प्रति एक बड़ा गुस्सा है और वे सरकार के राहत कार्यों व खाद्यान्न सामग्री बांटने के दावों को एक सिरे से नकारने में लगे हुए हैं। सरकार भले ही आपदा पीड़ितों का दर्द हरने में एक माह बाद भी नाकाम साबित हुई हो लेकिन वह अपने सरकारी जादूई आंकड़ों के खेल में सबको फेल करने में लगी हुई है?
प्रदेश के चारधाम यात्रा में बीती 15 जून को महा जलप्रलय आई जिसमें रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी व चमोली में महा विनाश की लीला पूरे देश के लोगों ने अपनी आंखों से देखी। सबसे ज्यादा नुकसान रुद्रप्रयाग में केदारनाथ व रामबाड़ा में हुआ जहां हजारों श्रद्धालुओं व पहाड़ों में रहने वाले हजारों बाशिंदों का आज तक कुछ पता नहीं चल पाया, आशंकाए लगातार उठ रही हैं कि केदारनाथ व रामबाड़ा में हजारों लोग भारी मलबे के नीचे दबकर मर गये। इतनी बड़ी तबाही के बावजूद भी सरकार को कई दिनों तक यह ही समझ नहीं आया था कि वह इस आपदा की घड़ी में क्या करे? हां उसे  चिन्ता सताई तो वो सिर्फ केन्द्र व पूरे देश से आर्थिक मदद मांगने की दिखाई पड़ी।
सरकार जादूई आंकड़ें देकर आवाम की भावनाओं से खेलती आ रही है। सरकार आज तक इस महा जलप्रलय में हुई मौतों का सही आंकड़ा देश के सामने पेश नहीं कर पाई , हालांकि मौत के आंकड़ों को लेकर सरकार में शामिल कई नेताओं के बीच जमकर महाभारत हुई थी। सरकार ने दावे किए की आपदा में मारे गये लोगों का अन्तिम संस्कार किया जाएंगा। लेकिन केदारनाथ में गिनती के लोगों का अन्तिम संस्कार करने का दावा किया गया। हालांकि सरकार पर उंगलियां उठ रही हैं कि जब प्रशासन ने दावा किया था कि केदारनाथ में मलबांे के उपर लगभग 250 शव पड़ें हुए हैं तो आज तक सिर्फ  93 शवों का अन्तिम संस्कार क्यों किया गया? सवाल उठ रहे हैं कि सैकड़ों शव आखिरकार कहां गायब हो गये? क्या इन शवों को ठिकाने लगाने का कुच्रक रचा गया जिसके चलते मौतों के आंकड़ों को कम दिखाई जा सके? सरकार दावे करती आई की केदारनाथ व रामबाड़ा में मलबों के नीचे दबे शवों को बड़ी-बड़ी मशीनों से बाहर निकाल लिया जायेगा, लेकिन सरकार की मंशा मलबों से शवों को बाहर निकालने के लिए तिनका भर भी दिखाई नहीं पड़ी? जिसका परिणाम यह रहा कि मलबों के नीचे दबे हजारों शव मलबे में विलीन हो गये और इन मलबों के नीचे किनके अपने हमेशा के लिए मौत की नींद सो गये इस पर जीवन भर के लिए संशय बना रहेगा। आपदा के बाद सरकार ने पुनर्वास व तबाह हो गये हजारों गांववासियों को आश्वासन दिया था कि जब तक पहाड़ का जन-जीवन पटरी पर नहीं आ जाता तब तक उन्हें खाद्यान्न सामग्री  मिलती रहेगी। लेकिन सरकार के ये दावे लगातार खोखले साबित हो रहे हैं।
आपदा के बाद एक माह के कार्यकाल में जहां हजारों गावंवासी खाने के संकट से लगातार जूझ रहे हैं वहीं उनके सामने बीमारी से लड़ने का भी बड़ा खतरा बना हुआ है। पहाड़ में डायरिया से कुछ लोग मौत के मुंह में चले गये। पहाड़ों में डॉक्टरों को तैनात करने के सरकारी दावों की ग्रामीण ही पोल खोलने में लगातार लगे हुए हैं।
पहाड़ के गांवों को जोड़ने वाली सड़कों के निर्माण के लिए अभी तक कोई पहल नहीं की गई जिसके कारण गर्भवती महिलाओं के अलावा नौनिहालों को शिक्षा के केन्द्र तक पहंुचने का बड़ा संकट खड़ा हुआ है। कई किलोमीटर दूर जाकर ग्रामीण खाद्य सामग्री लेने के लिए पहंुच रहे हैं जहां उन्हें प्रशासनिक अमला दुत्कार कर भगा रहा है जिससे ग्रामीणों के सब्र का बंाध टूटता जा रहा है। इस आपदा से निपटने के लिए जहां सरकार पूरी तरह से फेल हुई वहीं आपदा के एक माह बाद भी सरकार चारधाम यात्रा मार्गों पर पड़ने वाले जिलों को पटरी पर लाने में सफल नहीं हो पाई है। हजारों गांव के बाशिंदे आज जिन्दगी व मौत के बीच जंग लड़ रहे हैं। बाहरी प्रदेशों से आई खाद्यान्न सामग्री या तो गोदामों में सड़ रही है या उनकी बंदरबांट का खेल चल रहा है।
महा जलप्रलय में समा चुकी सड़कों को ठीक करने के लिए तेजी के साथ कोई पहल नहीं की जा रही है। जिससे मानसून में यह सड़कें कैसी बन पाएंगी अपने आपमें कई सवाल खड़ें कर रहा है। सरकार आपदा पीड़ितों का दर्द हरने के बजाए जिस तरह से आवाम के सामने जादूई आंकड़ें पेश कर रही है वह उसकी नाकामी को उजागर करता है।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

उत्तराखंड के सफेदपोशों और ब्यूरोक्रेट ने कर डाला 500 करोड़ से अधिक का घोटाला

उत्तराखंड के सफेदपोशों और ब्यूरोक्रेट ने कर डाला 500 करोड़ से अधिक का घोटाला
सिडकुल व कृषि विश्वविद्यालय की जमीन पर बनेगा मॉल और मल्टीप्लैक्स
राजेन्द्र जोशी
उत्तराखंड के इतिहास में शायद ही इतना बड़ा घोटाला हुआ हो जो वर्तमान सरकार ने  रूद्रपुर में कर डाला। एक जानकारी के अनुसार लगभग 500 करोड़ से अधिक के इस घोटाले में कई ब्यूरोक्रेट से लेकर सफेदपोश नेताओं की तिजोरियां भरी गई हैं। मामला रूद्रपुर में पंतनगर तथा हरिद्वार  सिडकुल क्षेत्र की भूमियों से जुड़ा है। अरबों की सरकारी भूमि के खुर्द बुर्द के बाद विभागीय अधिकारियों  तथा अफसरशाही का उपर से ये तुर्रा कि औद्योगिक क्षेत्र के इन स्थानों पर लोगों के रहने के लिए आवासीय व्यवस्था पीपीपी मोड में की जायेगी। पहला मामला पंतनगर विश्वविद्यालय की उस भूमि का है जिस पर कृषि विश्वविद्यालय खेती पर प्रयोग करता रहा था बाद में इस भूमि को तिवारी सरकार के शासनकाल में सिडकुल को दे दी गयी थी। जिंदल उद्योग व डावर उद्योग के बीच स्थित  इस भूमि पर एक बड़ा मॉल व आवासीय भवन का विज्ञापन दिल्ली के बड़े बिल्डर द्वारा उसकी बेव साइट पर डाल दी गयी है। जबकि दूसरा महत्वपूर्ण मामला पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से जुड़ी  उस जमीन का है, जिस पर पूर्व भाजपा सरकार ने यह भूमि विश्वविद्यालय से लेकर मण्डी समिति को 29  जुलाई 2011 को स्थानान्तरित कर खाद्यान व्यापार स्थल एंव अत्याधुनिक कृषि बाजार बनाने के लिए ली थी। सरकार की मंशा पर तब सवालिया निशान लगे जब एक ओर तो कृषि विपणन अनुभाग द्वारा इस 50 एकड़ भूमि पर अत्याधुनिक बहुमंजिला व्यवसायिक भवन सहित सम्मेलन केंद्र व फूलों की खेती केंद्र बनाए जाने के  लिए बैठक बुलायी गई है। वहीं दूसरी ओर इसी भूमि पर बहुमंजिले व्यवसायिक भवन सहित अत्याधुनिक आवासीय भवन व भूखण्ड का विज्ञापन एक निजी संस्थान द्वारा वेबसाइट पर डाला गया है।
        गौरतलब हो कि भाजपा सरकार के शासनकाल के दौरान गोविंद बल्लभ पंत कृषि एंव प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय से वर्ष 2011 में 50 एकड़ भूमि रूद्रपुर में अत्याधुनिक कृषि एंव खाद्यान्न व्यापार भवन हेतु लगभग साढ़े तीन करोड़ रूपये में ली गई थी। जिसका शासनादेश 29 जुलाई 2011 को हुआ था। इस भूमि  पर मण्डी समिति द्वारा कब्जा प्राप्त कर आंशिक स्थल एवं विकास एंव भूमि के मद में कुल मिलाकर 5.50 करोड़ रूपये व्यय किए जा चुके हैं। इतना ही नहीं इस भूमि पर खाद्यान्न मण्डी और टर्मिनल मार्केट के रूप  में फल, फूल व सब्जी के थोक बाजार बनाने की प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी बनायी जा चुकी है जिस पर नेशनल  इंस्टीटयूट ऑफ ऐग्रीकल्चर मार्केट बोर्ड (एनआईएम)  को डीपीआर बनाने के 35 लाख रूपये भी दिये जा  चुके हैं। इतना ही नहीं बीती 20 दिसम्बर 2011 को पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस प्रस्तावित भवन का शिलान्यास भी कर दिया था।
  यहां भी उल्लेखनीय है कि 50 एकड़ भूमि को किसी निजी संस्थान को दिए जाने की सुगबुगाहट जब बीते  विधानसभा सत्र के दौरान क्षेत्रीय विधायक राजकुमार ठुकराल एंव राजेश शुक्ला को हुई तो उन्होंने इस  मामले को ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के दौरान विधानसभा में रखा। जिस पर कृषि मंत्री हरक सिंह रावत व संसदीय कार्य मंत्री डॉ. इन्दिरा हृदयेश पाठक ने सदन में बयान दिया था कि इस भूमि को किसी को नहीं दिया जा रहा है और यहां खाद्यान्न बाजार व अत्याधुनिक मण्डी बनायी जा रही है। विधानसभा में दिये गये इस बयान के उलट राज्य सरकार के कृषि एवं विपणन अनुभाग-एक के पत्रांक 21 दिनांक 8 जनवरी 2013 के अनुसार यह भूमि सरकार द्वारा पीपीपी मोड में दिये जाने का प्रस्ताव की पुष्टि करता है। इतना ही चर्चा तो यहां तक है कि इस भूमि को लेकर प्रमुख सचिव औद्योगिक विकास एंव प्रमुख सचिव कृषि के बीच नोंक -झोंक भी हुई थी। चर्चाओं के अनुसार प्रमुख सचिव औद्योगिक विकास का कृषि सचिव को यह कहना कि क्या वे पंचसितारा होटल के सामने तबेला खोलना चाहते हैं। चर्चा तो यहां तक है कि इस प्रकरण में इस भूमि को निजी हाथों में देने का तानाबाना प्रमुख सचिव औद्योगिक विकास द्वारा ही बुना गया। वहीं यह चर्चा भी आम है कि बीती 17 नवंबर को पोंटी चढ्ढा हत्या कांड से पूर्व राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की दिल्ली में मौजूदगी इसी जमीन की डीलिंग को लेकर थी। एक ओर सरकार द्वारा इस भूमि पर अत्याधुनिक व्यवसायिक भवन बनाए जाने को लेकर पत्राचार तो दूसरी तरफ इस भूमि को पीपीपी मोड में देने की बात जहां लोगों के गले नहीं उतर रही है वहीं इस भूमि पर सुपरटैक लिमिटेड द्वारा मैट्रो पोलिस मॉल सहित व्यवसायिक संस्थानों के लिए शो-रूम व आवासीय भूखण्ड एंव भवन का विज्ञापन दाल में काला नजर आने के लिए काफी है। इतना ही नहीं सरकार की इस जमीन का मानचित्र भी वेबसाइट पर डाला गया है और सरकार से ली गई इस जमीन की कीमत लगभग सवा लाख रूपया प्रति वर्ग गज की जानकारी भी डाली गयी है। इस वेबसाइट पर यहां बनने वाले बहुमंजिले भवन का ले-आउट प्लान भी डाला गया है। वेबसाइट पर बेसमेंट की भूमि दर जहां 11 हजार रूपया प्रति वर्ग फीट रखी गई है तो भूतल की दर 12 हजार प्रति वर्ग फीट, इसी तरह प्रथम तल की दर 11 हजार प्रति वर्ग, द्वितीय तल की 8 हजार रूपया, तृतीय तल की 6 हजार और चतुर्थ तल की 4 हजार रूपया रखी गई है। इस सब के भुगतान के लिए कम्पनी द्वारा अपने नोएडा कार्यालय का पता दिया गया है।
 मामले में पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का कहना है कि इस सरकार को न तो किसानों की चिंता है और न कृषि की। उन्होंने कहा कि मण्डी समिति के काफी प्रयासों के बाद उसे यह भूमि मिल पायी थी जिसको यह सरकार खुर्द-बुर्द करना चाहती है। जबकि भाजपा शासनकाल में इस भूमि पर अत्याधुनिक मण्डी भवन बनाने का प्रस्ताव अन्तिम दौर में था। उन्होंने कहा कि सरकार की इस मंशा को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा और किसानों के लिए ली गई इस भूमि पर किसानों के हित के कार्य ही होंगे। उन्होंने राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह सरकार पूरे प्रदेश की सम्पतियों को पीपीपी मोड में देने को आखिर क्यों इतनी उतावली है इसकी जांच की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह घोटाला राज्य के इतिहास में सबसे बडा घोटाला साबित होगा जिसमें सरकार के मंत्री व अफसर बराबर के हिस्सेदार हैं।
  हलद्वानी से पेशे से वकील चन्द्र मोहन करगेती का कहना है कि अब माल काटने के खेल की नए सिरे से फिर शुरूआत होने जा रही है, अबकी बार इसके नायक है औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव, बहुगुणा सरकार के इस निर्णय से बहुत सारे प्रश्न और शंकाएं को बल मिल रहा है, जिनका उत्तर हमें तलाशना ही पडे़गा, यह ऐसे में और जरूरी हो जाता है जब सन् 2001-2002 से 2010-2011 के बीच में राज्य में 53,027 हेक्टेयर कृषि भूमि खत्म हो जाती है, 2011-2012 के आंकड़े अभी प्राप्त नहीं हुए है, अगर इसके आंकड़ों को भी जोड़ दिया जाये तो स्थिति और भयावह है, इसके विपरीत हमारे पड़ोसी राज्य में साल दर साल कृषि भूमि में इजाफा होता है, और उत्तराखण्ड में साल दर साल घटोती हो रही है, यह आंकड़े सरकार की नीतियों पर तो एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है ही लेकिन साथ ही इस राज्य की जनता की पसंद पर भी कि वह कैसे प्रतिनिधि विधानसभा में भेज रही है ? राज्य में उद्योगों के नाम पर ली गयी बेशकीमती जमीनों के इस बन्दर बाँट से जो प्रश्न खड़े हो रहे हैं उनका जवाब भी हमें ढूंढना है।
उन्होने कहा निम्न प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं
सिडकुल में टाउनशिप बनायी जायेंगी उस जमीन का लैंडयूज नियमों को ताक पर रखकर कैसे परिवर्तित किया जाएगा ?
जो टाउनशिप बनेगी उसमें रहने वाले लोग कौन होंगे क्योंकि सिडकुल में स्थायी कर्मकार के रूप में काम करने वाले लोगो का प्रतिशत 10 भी नहीं है जबकि सरकार के जीओ के यह व्यवस्था 70 प्रतिशत की थी ?
जमीन को दोबारा बेचने की जरुरत क्यों पड़ रही है ?
उद्योगों के नाम पर ली गयी उपजाऊ कृषि भूमि पर उद्योग क्यों नहीं स्थापित हो सकते, क्या इन्हें निजी बिल्डर को देना ही एक मात्र विकल्प है ?
आवासीय कॉलोनी निर्माण को ली गयी जमीन किस मूल्य पर बिल्डरों को दी जायेगी और उनके द्वारा उसे किस मूल्य पर बेचा जाएगा, और उस मुनाफे में सरकार का हिस्सा क्या होगा ?
क्या यह सरप्लस बची भूमि पहाड़ में आपदा से पीड़ित या टिहरी विस्थापितों को क्यों नहीं दी जा सकती ?
राज्य में आपदा के समय किसी भी अधिकारी को हेलिकोप्टर नहीं दिया गया, लेकिन भूमि तलाश को हेलिकोप्टर दिया गया है इसका खर्च कौन वहन कर रहा है ?
ये बहुत सारे प्रश्न है जिनका उत्तर हमें स्वयं को ही तलाशना होगा सरकार में बैठे मंत्री व विधायक तो इनका उत्तर देने से रहे, और नौकरशाहों से इसकी उम्मीद करना बेइमानी है जब वे इस राज्य के निर्वाचित प्रतिनिधियों को कुछ नहीं समझते तो जनता की कौन सुनेगा।

राज्यवासियों की भावनाएं भवनों में कैद होकर तो नहीं रह जाएगी!

राज्यवासियों की भावनाएं भवनों में कैद होकर तो नहीं रह जाएगी!राजेन्द्र जोशी
राज्य आंदोलन का राजधानी के रूप में केंद्र बिन्दु रहा गैरसैंण 21 वर्ष बाद आज भी वैसा ही है जैसा 19 नवंबर 1991 को था। तत्कालीन भाजपा सरकार ने यहां अपर शिक्षा निदेशक कार्यालय का शिलान्यास कर पत्थर तो लगा दिया, लेकिन कहने भर को यह कार्यालय यहां रहा। लगभग 21 वर्ष बाद एक बार फिर गैरसैंण गैर न होकर फिर अपना हो गया और बहुगुणा सरकार ने यहां विधानभवन सहित कई अन्य भवनों का बड़े जोर-शोर से शिलान्यास कर दिया, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र के लोगों में आज भी सरकार के प्रति वह विश्वास नजर नहीं आता जो उनमें आना चाहिए था। पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को डर है कि कहीं उनकी भावनाओं के साथ छलावा तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि 21 वर्ष पहले जो पत्थर भाजपा ने लगाया था उस पर उम्मीदों का भवन आज तक नहीं बन पाया है। ऐसे में बीते दिन हुए शिलान्यास को लेकर आम जन में संदेह होना लाजमी है। उनके मन में यह संदेह भी पनप रहा है कि यदि गैरसैंण में विधानभवन बन भी गया तो मात्र एक सप्ताह की विधानसभा के लिए मजमा जुटने के बाद ये भवन फिर बीरान हो जाएंगे और राज्य वासियों की भावनाएं एक बार फिर इन भवनों में कैद होकर रह जाएगी। क्षेत्रवासियों का संदेह इसलिए भी लाजमी लगता है कि लगभग दो दशक पूर्व भराड़ीसैंण में विदेशी पशु प्रजनन केंद्र बनाया गया था, जो तत्कालीन उत्तर प्रदेश के दौरान एक मात्र ऐसा केंद्र था, जहां डेनमार्क, फिन्लैण्ड आदि यूरोपीय देशों की गायों की नस्लें आयात कर मंगाई गई थी। जिनसे स्थानीय गांयों का प्रजनन कराकर विदेशी और हिंदुस्तानी नस्लों की गाय बछड़े पैदा किए गए। जिनकी दुग्ध क्षमता स्थानीय गायों से कहीं अधिक थी। राज्य के अस्तित्व में आने के बाद प्रदेश में काबिज सरकारों से गैरसैंण की तरह भराड़ीसैंण के इस पशु प्रजनन क्षेत्र को भी भुला दिया और करोड़ों रूपये की लागत से यहां बने भवन और डेयरी क्षेत्र में काम आने वाले विदेशी उपकरण धूल फांकने लगे। आज लगभग मृतप्राय हो चुके इस क्षेत्र को देखकर स्थानीय निवासियों की तल्ख टिप्पणी लाजमी है कि कहीं यहां विधानभवन और अन्य भवन बनकर तैयार होने के बाद उनकी भी कहीं ऐसी दुर्दशा तो नहीं होगी।
राज्य आंदोलन से लेकर राज्य प्राप्ति तक गैरसैंण राज्य आंदोलन का जहां प्रतीक रहा है वहीं शहीदों की उम्मीदों की राजधानी, राज्य वासियों की भावनाओं की इस राजधानी को लेकर तत्कालीन उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के अस्तित्व में आने तक कई बार रायशुमारी के बाद राजधानी चयन के लिए दो आयोगों ने इस पर काम किया। कौशिक समिति ने जहां गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने को लेकर अपनी रिपोर्ट पर्वतीय जन मानस के पक्ष में दी वहीं दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को तत्कालीन भाजपा सरकार ने भले ही सार्वजनिक न की हो लेकिन राज्यवासियों में खासकर पर्वतीय अंचलों के निवासियों में गैरसैंण राजधानी के रूप में उनके जेहन में रचा बसा है। इसके पीछे जहां यह तर्क रहा है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में हो वहीं इसे सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र के विकास से भी जोड़ा गया। इतना ही नहीं इस राजधानी को बेरोजगारी और पलायन से भी जोड़कर देखा गया। क्योंकि इनका मानना है कि इससे समूचे पर्वतीय अंचल का जहां विकास होगा वहीं क्षेत्र की मूल समस्याओं से भी राज्यवासियों को  निजात मिलेगी।
गैरसैंण राजधानी को लेकर राज्य आंदोलन का प्रमुख घटक दल रहा उत्तराखंड क्रांति दल के केंद्रीय अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार का कहना है कि छोटे से राज्य में दो-दो राजधानियां नहीं होनी चाहिए। उनका कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह गैरसैंण में राजधानी के वह तमाम आधारभूत संसाधनों को जुटाए ताकि राज्य के केंद्र बिन्दु से ही राज्य की सरकार संचालित की जा सके। उनका कहना है कि 25 जुलाई 1992 को राज्यवासियों की भावनाओं का आदर करते हुए राज्य आंदोलन के जनक स्वर्गीय इंद्रमणी बडोनी व काशी सिंह ऐरी ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम से गैरसैंण को चंद्रनगर नाम देते हुए यहां राजधानी का शिलान्यास किया था। उनका कहना है कि गैरसैंण मात्र एक स्थान नहीं बल्कि यह राज्य आंदोलनकारियों व राज्यवासियों की भावना की राजधानी भी है। लिहाजा सरकार को चाहिए कि वह जनमानस को देहरादून के नाम पर भ्रमित न कर गैरसैंण को पूर्ण राजधानी का स्वरूप दे।
वहीं भाजपा के नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट का कहना है कि गैरसैंण में जब तक आधारभूत व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया जाएगा मात्र विधान भवन बनाने से राज्य का भला नहीं होने वाला उनका कहना है कि यहां अवस्थापना सुविधाओं को भी यहां सुदृढ़ करना होगा। उन्होंने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाए जाने की बात भी कही।

बिगडती छवि के बाद सरकार ने छेड़ा ऑपरेशन ‘मीडिया मैनेजमेंट’

बिगडती  छवि  के  बाद सरकार ने छेड़ा ऑपरेशन ‘मीडिया मैनेजमेंट’
सूचना निदेशालय ने संभाली कमान
बंटने लगी मोटे पैकेजों की सौगात
जोर पकड़ रहा बंदरबांट का खेल
देहरादून। उत्तराखंड में आपदा की दर्दनाक दास्तान में अब एक और अध्याय जुड़ेगा। इसका वास्ता न तो आपदा से होगा और न ही पीड़ितों से। हो भी क्यों, आखिरकार सवाल सरकार की छवि को बचाने का जो है। बात होगी तो सिर्फ गुणगान की। इसलिए, सरकार ने ऑपरेशन ‘मीडिया मैनेजमेंट’ भी छेड़ दिया है। संकट की इस घड़ी में लाखों-करोड़ों  फूंक कर मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया को मैनेज किया जा रहा है। राहत व बचाव के मोरचे पर सरकार भले नाकाम साबित हुई है, लेकिन इस ऑपरेशन का असर बड़ी तेजी से हो रहा है। न्यूज चैनलों के सुर बदलने लगे हैं। सरकार को खरी-खोटी सुनाने वाले कई चैनल अब सरकार की स्तुतिगान का पहाड़ा पढ़ रहे हैं। इसके बदले मोटे पैकेजों की सौगात बांटी जा रही है। इस ऑपरेशन की कमान राज्य सूचना निदेशालय ने संभाली है।
राज्य में आसमान से बरसी भीषण तबाही के भयावह सच से शायद ही कोई अछूता है। तबाही से पहले और इसके बाद राज्य सरकार की संजीदगी और सतर्कता की पोल खुल चुकी है। सरकार प्रदेश ही नहीं देशभर में निशाने पर है। उसे जगह-जगह का जन विरोध झेलना पड़ा है। कांग्रेस हाईकमान खुद इस मुद्दे पर खफा है। आपदा की कवरेज के लिए मची होड़ में न्यूज चैनल भी तीखे तेवरों के साथ सरकार को खूब खरी-खोटी सुना चुके हैं। तबाही के इस दौर में राज्य सरकार की छवि को खासा बट्टा लग चुका है। खराब होती छवि व कामकाज पर लगातार उठते सवालों को थामने के लिए कांग्रेस ने एक साथ कई मोरचे खोल दिए हैं। केंद्र से प्रदेश प्रभारी अंबिका सोनी व वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज कांग्रेसी दून पहुंचकर दिखावे के लिए ही सही सरकार की पीठ थपथपा रहे हैं। कांग्रेसी राज्यों के मुख्यमंत्री और पार्टी के कई केंद्रीय नेता भी इस मोरचे में पीछे नहीं है। लेकिन, इससे एक कदम और आगे बढ़ते हुए अब राज्य सरकार ने ऑपरेशन ‘मीडिया मैनेजमेंट’ भी छेड़ दिया है। इस ऑपरेशन के जरिये सरकार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों को मैनेज करने की कोशिश में है और इसमें उसे शुरूआती कामयाबी भी मिलती दिख रही है। पहले आपदा और फिर राहत व बचाव ऑपरेशन का हवाला देकर सरकार की धज्जियां उड़ाते आ रहे न्यूज चैनलों में से कई के तेवर नरम पड़ते दिख रहे हैं। उनके सुर बदल गए हैं। सरकार की सुस्ती पर निशाना साधने वाले कई चैनल अब उसकी इमेज बिल्डअप करते दिख रहे हैं। संकट की इस घड़ी में मुख्यमंत्री के साक्षात्कार भी मैनेज किए जा रहे हैं। हैरानी की बात है कि इन साक्षात्कारों में हकीकत बयां कर सरकार पर आग उगलते आ रहे न्यूज चौनल अब खुद ही मुख्यमंत्री का गुणगान करने में पीछे नहीं है। एक भी दिन आपदा प्रभावित क्षेत्र में कैम्प न करने वाले मुख्यमंत्री को बहादुर व जुझारू बताकर आपदा से डटकर मुकाबला करने वाला सुलझा हुआ राजनेता बताया जा रहा है। उत्तराखंड में खुद को अग्रणी बताने वाले एक न्यूज चैनल ने इसकी शुरूआत कर दी है और अब जल्द ही अन्य चैनल भी यही गुणगान करते दिखेंगे। सूत्रों के अनुसार मीडिया मैनेजमेंट के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया गया है। न्यूज चैनलों को मोटे पैकेज देकर सरकार की नकरात्मक नहीं सकारात्मक छवि पेश करने के लिए मैनेज किया जा रहा है। यह पैकेज तीन-पांच लाख से शुरू होकर पंद्रह-बीस और पच्चीस-तीस लाख तक पहुंच सकते हैं। ऑपरेशन की कमान संभालने वाले सूचना निदेशालय की भूमिका इसमें अहम है। निदेशालय में जिसकी जितनी पैठ, उतना बड़े पैकेज की सौगात उसके नाम। इस बहती गंगा में हाथ धोने और चहेतों का फायदा पहुंचाने में कई प्रभावशाली नौकरशाह भी पीछे नहीं है। बताया जा रहा है कि इस ऑपरेशन के तहत निदेशालय न्यूज चैनलों के खबरनवीसों की खातिरदारी में कोर कसर नहीं छोड़ रहा। ये मीडियाकर्मी ड्यूटी अपने चैनल की बजा रहे हैं और पगार भी वहीं से ले रहे, लेकिन इनकी सुख-सुविधाओं का ख्याल निदेशालय रख रहा है। कवरेज में सहयोग के नाम पर मीडियाकर्मियों पर निदेशालय पूरी तरह मेहरबान है। सरकार के मंत्री भी मीडिया में वाहवाही लूटने के लिए हवाई सर्वेक्षण के नाम पर मीडियाकर्मियों को अपने साथ उड़नखटोलों में फर्राटा भरने में पीछे नहीं है।जबकि प्रभावित क्षेत्रों में लोग हैलीकाप्टर की कमी से नीचे नहीं उतारे जा रहे हैं। एक तीर से दो निशाने साधे जा रहे हैं। मोटे पैकेज के जरिये प्रबंधन को तो सुख-सुविधाएं मुहैया करा उनके कारिंदो को संतुष्ट करने का प्रयास है। ऑपरेशन ‘मीडिया मैनेजमेंट’ के दायरे में हालांकि, प्रिंट मीडिया को भी लाया गया है। लेकिन, धन खच करनेे की यदि बात करंे तो न्यूज चैनलों के मुकाबले अखबारों पर खर्च हो रहा बजट कहीं भी नहीं ठहरता। इसलिए, विवाद से बचने के लिए प्रिंट मीडिया को सिर्फ दिखावे भर के लिए शामिल किया गया है, ऑपरेशन पर खर्च होने वाली बड़ी राशि न्यूज चैनलों पर ही लुटाने की तैयारी है। इस पूरी कवायद के पीछे मकसद संकट के इस दौर में मीडिया की तीखी आलोचनाओं पर लगाम लगाकर सरकार की गिरती साख को पटरी पर लाना है। अब देखना यह है कि सरकार का यह ऑपरेशन अपना असर किस तरह दिखाता है। इस ऑपरेशनों के जरिये सरकार कितनों को मैनेज कर पाती है, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है।

लोग मर रहे हैं, संत लड रहे हैं

लोग मर रहे हैं, संत लड रहे हैं

डॉ. सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड की तबाही में कई हजार लोग मारे गए, परिवार तबाह हो गए हैं और लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है, लेकिन संतों-धर्माचार्याें की चिंता केवल भगवान केदारनाथ की पूजा तक सिमट कर रह गई है। संत इस बात को लेकर भिड़ गए हैं कि केदारनाथ की पूजा उनके शीतकालीन गद्दीस्थल उखीमठ में क्यों शुरू कर दी गई। लाशों के अंबार के बीच संतों की प्राथमिकता यह कि परंपरा सुरक्षित रहे, लोगों का क्या, वे तो मरते-जीते रहते हैं।
दुनिया के तमाम धर्माें, चाहे वे एकेश्वरवादी हों या बहुदेववादी, में ईश्वर को करुणावान, न्यायकारी, समदृष्टा, भक्त-वत्सल और पीड़ा में पड़े लोगों का उद्धार करने वाला बताया गया है। पर, उत्तराखंड की त्रासदी के बाद इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि सच में ईश्वर वैसा ही, जैसा कि उपरोल्लिखित विशेषणों में कहा गया है। खैर, भगवान को जो करना था, उन्होंने वो कर दिया और धर्मभीरू लोगों ने इसे स्वीकार भी कर लिया, लेकिन धरती पर भगवान के प्रतिनिधि कहलाने वाले संत और धर्माचार्य जो कुछ कर रहे हैं वो और ज्यादा पीड़ादायक है। उत्तराखंड की केदारघाटी के अलावा विभिन्न घाटियों, पहाड़ों, चट्टियों और नदियों के कैचमेंट में फंसे करीब एक लाख लोगों को सेना, अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सुरक्षित निकाले जाने के बाद संत सक्रिय हो गए हैं। यंू तो वे पिछले एक सप्ताह से सक्रिय थे, लेकिन उनकी सक्रियता हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश आदि अपेक्षाकृत सुरक्षित जगहों तक सीमित थी। लेकिन, अब वे केदारनाथ की पूजा को लेकर भिड़े हुए हैं। केदारनाथ शैव परंपरा की पीठ है और भगवान केदारनाथ गर्मी के दिनों में केदारनाथ में और सर्दी के दिनों में उखीमठ में पूजे जाते हैं। केदारनाथ की विषम स्थितियों को देखते हुए केदारनाथ के रावल (वरिष्ठ पुजारी, जिन्हें लिंगशिवाचार्य भी कहा जाता है) ने उनकी पूजा उखीमठ में आरंभ करा दी। इस पर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और उनके समर्थक संत भड़के हुए हैं कि आखिर, रावल ने उनकी सहमति के बिना पूजा-अर्चना कैसे शुरू करा दी। अब शंकराचार्य अपनी मंडली के साथ केदारनाथ जाना चाहते हैं ताकि मंदिर की शुद्धि कराकर वहां पूजा आरंभ करा सकें। लेकिन, उनसे यह पूछने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता कि पिछले दस दिन से यह संत मंडली कहां थी ? यह सवाल भी कायम है कि क्या संतों की चिंता केवल भगवान की पूजा और केदारनाथ की परंपरा को बचाए रखने तक सीमित है ? क्या भगवान के भक्तों और भगवान के दर पर प्रकृति के तांडव से सताए गए लोगों के बारे में सोचने का काम केवल सेना और सरकार का है। उखीमठ में पूजा के मामले में संत दो गुटों में विभाजित हो गए हैं। शंकराचार्य माधवाश्रम, शंकराचार्य वासुदेवानंद, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री श्रीमहंत हरिगिरि और जूना अखाड़ा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीमहंत प्रेमगिरि उखीमठ में पूजा शुरू किए जाने के हिमायती हैं, लेकिन अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता हठयोगी दिगंबर, रामानंदाचार्य हंसदेवाचार्य और महामंडलेश्वर हरिचेतनानंद आदि इसके विरोध में हैं।
आपदा के बाद 14वें तक दिन भी सेना का बचाव अभियान चल रहा है, हजारों लोग अपने लापता परिजनों को ढूंढ रहे हैं, गांव के गांव नदियों के साथ बह गए हैं और पहाड़ के उंचाई वाले इलाकों में स्थानीय लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे हालात में क्या संतों के पास केवल यही काम है कि वे पूजा-अर्चना और परंपरा को बचाने की लड़ाई लड़ते नजर आएं। लोगों के मनो-मस्तिष्क यह प्रश्न भी खड़ा हो रहा है कि देश के नामी संत इस वक्त कहां हैं। इसमें चाहें तो आसाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर, कृपालु महाराज, मोरारी बापू, कौशल महाराज, बाबा हरदेव सिंह, सुधांशु महाराज, रामरहीम सिंह, विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, अखाड़ों के पीठाधीश्वर आदि बड़े नामों का जिक्र कर सकते हैं। इन नामों की सूची बहुत लंबी है। इनमें से किसी संत ने गुपचुप कोई मदद कर दी हो तो अलग बात है, सार्वजनिक रूप से किसी को यह नहीं पता कि ये आपदा के वक्त पीड़ितों के साथ खड़े थे या नहीं। वास्तव में, सुविधापूर्ण जिंदगी जी रहे संतों, बाबाओं, मठाधीशों से यह उम्मीद करना बेकार है वे उदारमना होकर अपने मठों की तिजोरियां खोल देंगे।
केवल संतों-मठाधिपतियों ने ही नहीं, देश के नामी मंदिरों, मठों, ट्रस्टों ने भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। दर्जनों मंदिरों-मठों के पास अरबों की संपत्ति है। मसलन, तिरुपति बालाजी मंदिर की कुल संपत्ति पांच हजार करोड़ ज्यादा है, शिरडी साईं बाबा का मंदिर आय के मामले में भारत का दूसरा सबसे धनवान मंदिर है और इसकी संपत्ति भी ढाई हजार करोड से ज्यादा की बताई जाती है, तीसरे नंबर पर माता वैष्णों देवी का मंदिर है जिसकी सालाना आय 500 करोड़ रुपए है। ऐसे मंदिरों का आंकड़ा एक दर्जन से ज्यादा है जहां साल भर में सौ करेाड़ से ज्यादा की आय होती है। लेकिन, किसी ट्रस्ट या मठाधिपतियों की ओर से पीड़ितों को राहत पहुंचाने, उत्तराखंड के उजड़े हुए गांवों को बसाने की लिए कोई ऐलान नहीं हुआ। आखिर, मठों-मंदिरों की यह संपत्ति भी तो जनता की है। जनता की न भी मानें तो इसे भगवान की मान लें। इस वक्त उन लोगों की पहचान होना जरूरी है जो भगवान की इस संपदा को पीड़ितों के लिए खर्च करने को तैयार नहीं हैं। और हां, उन ज्योतिषियों का पता लगाने की भी जरूरत है जो भगवान के भक्तों और आस्थावान लोगों से भरपूर लाभ उठाते रहे हैं। आखिर, उन्होंने समय रहते लोगों को आगाह क्यों नहीं किया वे इस बार उत्तराखंड न जाएं, वहां जान से हाथ धोना पड़ सकता है। या वे भी केवल भ्रमजाल फैलाने वाले गिरोहों का हिस्साभर हैं ?
इस आपदा के वक्त भगवान केदारनाथ और बदरीनाथ की महिमा और वैभव का खूब प्रचार हुआ है, लेकिन एक सैन्य अधिकारी के उस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर, भगवान इतना नाराज क्यों है कि वह यहां मदद कर रहे लोगों को ही मार रहा है। पीड़ितों को बचाते वक्त मारे गए 20 अधिकारियों-सैनिकों का क्या अपराध था ? किसी धर्माचार्य के पास इसका कोई जवाब है ?
डॉ. सुशील उपाध्याय

उत्तराखंड की तबाही में कई हजार लोग मारे गए, परिवार तबाह हो गए हैं और लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है, लेकिन संतों-धर्माचार्याें की चिंता केवल भगवान केदारनाथ की पूजा तक सिमट कर रह गई है। संत इस बात को लेकर भिड़ गए हैं कि केदारनाथ की पूजा उनके शीतकालीन गद्दीस्थल उखीमठ में क्यों शुरू कर दी गई। लाशों के अंबार के बीच संतों की प्राथमिकता यह कि परंपरा सुरक्षित रहे, लोगों का क्या, वे तो मरते-जीते रहते हैं।
दुनिया के तमाम धर्माें, चाहे वे एकेश्वरवादी हों या बहुदेववादी, में ईश्वर को करुणावान, न्यायकारी, समदृष्टा, भक्त-वत्सल और पीड़ा में पड़े लोगों का उद्धार करने वाला बताया गया है। पर, उत्तराखंड की त्रासदी के बाद इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि सच में ईश्वर वैसा ही, जैसा कि उपरोल्लिखित विशेषणों में कहा गया है। खैर, भगवान को जो करना था, उन्होंने वो कर दिया और धर्मभीरू लोगों ने इसे स्वीकार भी कर लिया, लेकिन धरती पर भगवान के प्रतिनिधि कहलाने वाले संत और धर्माचार्य जो कुछ कर रहे हैं वो और ज्यादा पीड़ादायक है। उत्तराखंड की केदारघाटी के अलावा विभिन्न घाटियों, पहाड़ों, चट्टियों और नदियों के कैचमेंट में फंसे करीब एक लाख लोगों को सेना, अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सुरक्षित निकाले जाने के बाद संत सक्रिय हो गए हैं। यंू तो वे पिछले एक सप्ताह से सक्रिय थे, लेकिन उनकी सक्रियता हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश आदि अपेक्षाकृत सुरक्षित जगहों तक सीमित थी। लेकिन, अब वे केदारनाथ की पूजा को लेकर भिड़े हुए हैं। केदारनाथ शैव परंपरा की पीठ है और भगवान केदारनाथ गर्मी के दिनों में केदारनाथ में और सर्दी के दिनों में उखीमठ में पूजे जाते हैं। केदारनाथ की विषम स्थितियों को देखते हुए केदारनाथ के रावल (वरिष्ठ पुजारी, जिन्हें लिंगशिवाचार्य भी कहा जाता है) ने उनकी पूजा उखीमठ में आरंभ करा दी। इस पर शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और उनके समर्थक संत भड़के हुए हैं कि आखिर, रावल ने उनकी सहमति के बिना पूजा-अर्चना कैसे शुरू करा दी। अब शंकराचार्य अपनी मंडली के साथ केदारनाथ जाना चाहते हैं ताकि मंदिर की शुद्धि कराकर वहां पूजा आरंभ करा सकें। लेकिन, उनसे यह पूछने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता कि पिछले दस दिन से यह संत मंडली कहां थी ? यह सवाल भी कायम है कि क्या संतों की चिंता केवल भगवान की पूजा और केदारनाथ की परंपरा को बचाए रखने तक सीमित है ? क्या भगवान के भक्तों और भगवान के दर पर प्रकृति के तांडव से सताए गए लोगों के बारे में सोचने का काम केवल सेना और सरकार का है। उखीमठ में पूजा के मामले में संत दो गुटों में विभाजित हो गए हैं। शंकराचार्य माधवाश्रम, शंकराचार्य वासुदेवानंद, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री श्रीमहंत हरिगिरि और जूना अखाड़ा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीमहंत प्रेमगिरि उखीमठ में पूजा शुरू किए जाने के हिमायती हैं, लेकिन अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता हठयोगी दिगंबर, रामानंदाचार्य हंसदेवाचार्य और महामंडलेश्वर हरिचेतनानंद आदि इसके विरोध में हैं।
आपदा के बाद 14वें तक दिन भी सेना का बचाव अभियान चल रहा है, हजारों लोग अपने लापता परिजनों को ढूंढ रहे हैं, गांव के गांव नदियों के साथ बह गए हैं और पहाड़ के उंचाई वाले इलाकों में स्थानीय लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे हालात में क्या संतों के पास केवल यही काम है कि वे पूजा-अर्चना और परंपरा को बचाने की लड़ाई लड़ते नजर आएं। लोगों के मनो-मस्तिष्क यह प्रश्न भी खड़ा हो रहा है कि देश के नामी संत इस वक्त कहां हैं। इसमें चाहें तो आसाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर, कृपालु महाराज, मोरारी बापू, कौशल महाराज, बाबा हरदेव सिंह, सुधांशु महाराज, रामरहीम सिंह, विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, अखाड़ों के पीठाधीश्वर आदि बड़े नामों का जिक्र कर सकते हैं। इन नामों की सूची बहुत लंबी है। इनमें से किसी संत ने गुपचुप कोई मदद कर दी हो तो अलग बात है, सार्वजनिक रूप से किसी को यह नहीं पता कि ये आपदा के वक्त पीड़ितों के साथ खड़े थे या नहीं। वास्तव में, सुविधापूर्ण जिंदगी जी रहे संतों, बाबाओं, मठाधीशों से यह उम्मीद करना बेकार है वे उदारमना होकर अपने मठों की तिजोरियां खोल देंगे।
केवल संतों-मठाधिपतियों ने ही नहीं, देश के नामी मंदिरों, मठों, ट्रस्टों ने भी इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। दर्जनों मंदिरों-मठों के पास अरबों की संपत्ति है। मसलन, तिरुपति बालाजी मंदिर की कुल संपत्ति पांच हजार करोड़ ज्यादा है, शिरडी साईं बाबा का मंदिर आय के मामले में भारत का दूसरा सबसे धनवान मंदिर है और इसकी संपत्ति भी ढाई हजार करोड से ज्यादा की बताई जाती है, तीसरे नंबर पर माता वैष्णों देवी का मंदिर है जिसकी सालाना आय 500 करोड़ रुपए है। ऐसे मंदिरों का आंकड़ा एक दर्जन से ज्यादा है जहां साल भर में सौ करेाड़ से ज्यादा की आय होती है। लेकिन, किसी ट्रस्ट या मठाधिपतियों की ओर से पीड़ितों को राहत पहुंचाने, उत्तराखंड के उजड़े हुए गांवों को बसाने की लिए कोई ऐलान नहीं हुआ। आखिर, मठों-मंदिरों की यह संपत्ति भी तो जनता की है। जनता की न भी मानें तो इसे भगवान की मान लें। इस वक्त उन लोगों की पहचान होना जरूरी है जो भगवान की इस संपदा को पीड़ितों के लिए खर्च करने को तैयार नहीं हैं। और हां, उन ज्योतिषियों का पता लगाने की भी जरूरत है जो भगवान के भक्तों और आस्थावान लोगों से भरपूर लाभ उठाते रहे हैं। आखिर, उन्होंने समय रहते लोगों को आगाह क्यों नहीं किया वे इस बार उत्तराखंड न जाएं, वहां जान से हाथ धोना पड़ सकता है। या वे भी केवल भ्रमजाल फैलाने वाले गिरोहों का हिस्साभर हैं ?
इस आपदा के वक्त भगवान केदारनाथ और बदरीनाथ की महिमा और वैभव का खूब प्रचार हुआ है, लेकिन एक सैन्य अधिकारी के उस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर, भगवान इतना नाराज क्यों है कि वह यहां मदद कर रहे लोगों को ही मार रहा है। पीड़ितों को बचाते वक्त मारे गए 20 अधिकारियों-सैनिकों का क्या अपराध था ? किसी धर्माचार्य के पास इसका कोई जवाब है ?

चीन - नेपाल बार्डर तक 26 दिन बाद भी सड़क नहीं

चीन - नेपाल बार्डर तक 26 दिन बाद भी  सड़क नहीं


राजेन्द्र जोशी
देहरादून : 16-17 जून को केदारनाथ में आई विनाशकारी आपदा ने जहां हजारों लोगों के जीवन को लील लिया, वहीं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस राज्य की तमाम राजनैतिक और प्रशासनिक अक्षमताओं की पोल खोलकर रख दी है। तिब्बत, चीन और नेपाल की सीमा से लगे इस राज्य का अंतर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र होने के चलते और भी महत्व बढ़ जाता है। ऐसे में 26 दिन तक राज्य से भारत-चीन की सीमाओं तक जोड़ने वाले मार्गों का बंद रहना अपने आप में प्रदेश सरकार व केंद्र सरकार की क्षमताओं पर सवालिया निशान लगाता है।
    उल्लेखनीय है कि बीते दिन ही चीन ने लद्दाख क्षेत्र के चुमार इलाके में भारतीय पोस्ट पर घुसकर वहां लगे सिक्योरिटी कैमरों को तोड़ा ही नहीं बल्कि भारतीय सेना द्वारा बनाए गए, कुछ अस्थाई ढांचों को भी गिरा दिया। इतना ही नहीं चीनी फौज वहां लगे कैमरों के तार और कुछ कैमरे भी साथ ले गई। भारत के विरोध के बाद चीन ने कैमरे लौटा दिए। राज्य की वर्तमान परिस्थिति पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो प्रदेश के ऋषिकेश-गंगोत्री, ऋषिकेश-बद्रीनाथ और ऋषिकेश-केदारनाथ मार्ग सहित देहरादून से हिमाचल को जोड़ने वाले पर्वतीय मार्ग व हल्द्वानी-धारचूला मोटर मार्ग पिछले 26 दिनों से बंद हैं। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस राज्य की सीमा क्षेत्र में यदि चीन द्वारा लद्दाख की तरह घुसपैठ की जाती है और मौसम की स्थिति हवाई यातायात के लिए अनुकूल नहीं होती है, तो ऐसे में घुसपैठियों के खिलाफ कैसे कार्यवाही होगी यह सवाल उठ खड़ा हो रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि बीते 26 दिनों में राज्य की महत्वपूर्ण मुख्य मार्गों से लगभग 200 से ज्यादा पुल बल गए और कई किलोमीटर लंबा सड़क मार्ग भी बाढ़ की विभिशिका की भेंट चढ़ गया, लेकिन इन 26 दिनों में न तो भारत सरकार और न ही प्रदेश सरकार भारत-तिब्बत सीमा को जोड़ने के लिए न तो अस्थाई पुल ही बना सकी और न ही वैकल्पिक मार्ग। सीमा क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था में लगी फौज को कैसे रसद सामग्री पहुंचाई जा रही होगी, यह तो रक्षा मंत्रालय ही बता सकता है, लेकिन मौसम की खराबी के चलते सैन्य बेस कैंपों तक हैलीकाप्टर की आवाजाही भी नहीं हो पा रही है।
    मामले में रक्षा से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि भारत सरकार और प्रदेश सरकार को मिलकर सबसे पहले सीमा क्षेत्र को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों की मरम्मत और पुलों के निर्माण पर ध्यान देना होगा, ताकि सीमा क्षेत्र तक बिना रूके हुए यातायात चल सके। जिससे रसद सामग्री सहित आपदा प्रभावितों तक डाक्टर और अन्य सुविधाएं पहुंच सके। इससे जहां सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य की सीमाओं तक पहुंचा जा सकेगा, वहीं आपदा पीड़ितों की मदद भी हो सकी।

जिनको केदारनाथ ने नहीं मारा उनको तो सरकार मार चुकी

जिनको केदारनाथ ने नहीं मारा उनको तो सरकार मार चुकी
अब ये सरकार की तरफ से फाईनल हो गया है की सोलह जुलाई तक जो उत्तराखंडी अपने जिन्दा होने का प्रमाण देहरादून तक नहीं पहुँचा पाएगा उसे मृतक मान लिया जाएगा।सरकार को मानसून जोर पकड़ने से पहले आपदा राहत की थैली का हिसाब करना है।
जो कागज पर मर गया उसके जिन्दा होने का सबूत नहीं बन पाएगा।
देश तो अब गुजरात और अयोध्या पर नज़र लगाये बैठा है, केदारघाटी और बाकी तबाह हुए इलाके से देश का क्या लेना देना। जिनके मरे हैं वो जाकर माथा पीटते रहें, वहाँ बचाव अभियान पूरा हो चुका है। घोषणा हो चुकी है की हर किसी को निकाल लिया गया है, जो निकले वो अपने घर चले गए। जिनका घर ही वहीं है, उनको अपने जिन्दा रहने का सबूत देना है।
काश इन हुक्मरानों के घर का भी कोई फँसा होता तो तारीख निकालने में इतनी हड़बड़ी न होती। कुछ नहीं तो इतनी आश रहती की क्या पता वो भी झटके में गुजरात चला गया हो, वहाँ गिनती होगी तो किसी तरह वापस आ जाएगा। पर आपदा की थैली फटी है, राहत को ठिकाने लगाना है इस वास्ते सरकार को फटाफट तारीख तय करनी पड़ी की भईया फलां डेट तक बता देना की तुम जिन्दा हो नहीं तो तुम्हारी जान की कीमत हम निकाल लेंगे। फिर अगर उस सख्श के नाम पर नेताजी मुआवजा खा गए तो वो कागज में मर ही गया, जिंदगी बीत जायेगी लेकिन जो कागज पर मर गया उसके जिन्दा होने का सबूत नहीं बन पाएगा। अगर खेत भी बचे होंगे तो पटवारी से लेकर देहरादून तक दौड़ता रहेगा की मेरा है पर वहाँ कागज दिखला दिया जायेगा की बेटा जिनको केदारनाथ ने नहीं मारा उनको तो अब सरकार मार चुकी है और तुम्हारा नाम उसी मृतकों की लिस्ट में है, फिर कैसे खेत के कागज खोजने चले आये। पर मरे अपनी बला से, सरकार के पास उसके नाम से हज़ार करोड़ की थैली पहुँची है।
मौसम विभाग ने अबकी पहले ही बता दिया था की जुलाई में भारी बारिश होगी, जिसके चलते सरकार के जो नुमाईंदे पहाड़ में थे वो राजधानी भाग आये हैं। सबके बीवी बच्चे हैं, और घर देहरादून में है इसलिए चेतावनी की इज्ज़त करते हुए उनको अपनों के वास्ते देहरादून आना जरुरी था। ऐसे में पहाड़ पर जो कहीं दूर दराज के इलाकों में फँसा होगा, किसी दूर गाँव के परिचित के यहाँ बीमारी की हालत में बिस्तर पर पड़ा होगा, वो कैसे अपने जिन्दा होने का सुबूत तय की गयी तारीख तक देने जाए। एक भयानक त्रासदी की पीड़ा से उबरते हुए उसे खुद भी अपने जिन्दा होने पर भरोसा करने में अभी समय लगेगा। विकसित मुल्कों में ऐसे पीड़ितों के लिए विशेष चिकित्सा की व्यवस्था होती है, जहाँ उनको जिन्दा होने का यकीन कराया जाता है। स्वयंसेवक मनोचिकित्सक उसे त्रासदी की पीड़ा से उबरने में सहायता करते हैं पर यहाँ तो इतनी हड़बड़ी है की ये फाईल निबटा दी जाय नहीं तो बजट लैप्स कर जाएगा। मानसिक रूप से पीड़ित को उबारने की जगह उसके दिल को और डुबाने की तैयारी हो रही है। हाँ अभी तक ये गनीमत है की बहुगुणा की गणित को दूसरे राज्यों में नहीं अपनाया गया है क्योंकि अभी लापता तो तमाम जगहों के लोग हैं। उत्तरप्रदेश में तो बाकायदा मृतक संघ भी है जिसके सदस्यों को उनके ही भाई बंधुओं ने कागज़ पर मार दिया है। ये बिचारे अपने जिन्दा होने के सबूत के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं, कईयों ने तो चुनाव भी लड़ा, लम्बा धरना प्रदर्शन भी करते रहते हैं पर कागज़ पर जो मर गया उसका जिन्दा होना मुश्किल है। कुछ लोग तो अपने जिन्दा होने के सबूत के लिए आत्महत्या कर लेने की भी धमकी देते हैं पर डर जाते हैं की अगर सचमुच यमराज के ही कागज़ में नाम आगया तो फिर क्या होगा।
जो जिन्दा बचे हैं और उनका हिसाब है सरकार के पास और उनको भी मारने की पूरी तैयारी हो चुकी है। राहत के नाम पर पहाड़ तक पहुंचे विज्ञापन के डब्बे खुल रहे हैं तो उनमे और केदार घाटी की दुर्गन्ध में समानता मिल रही है। मुस्कुराते चेहरों वालों पैकेटों से अजीब सी सड़ांध बाहर आ रही है, सरकार की मज़बूरी है की ये पैकेट बंटवाने भी जरुरी हैं क्योंकि आलाकमान ने भेजा है। ये वही राहत है जो दिल्ली में एक शो का आयोजन करके भेजी गयी थी, बीच रस्ते में ट्रकों का तेल ख़तम हो गया था। वैसे भी बारिश में कोई पहाड़ चढ़ता नहीं, पानी भी नीचे भागता है और नीचे भाग गया बेटा बरसात बीत जाने के बाद घर आने की बात करता है। बरसात में पहाड़ की गाड़ियाँ भी मिलतीं क्योंकि बारिश अक्सर सड़कों का सत्यानाश कर देती है। सभी के घर देहरादून में होते नहीं हैं, सामान्य समय में भी जोरदार बारिश हो तो रस्ते बाधित हो जाते हैं ऐसे में जब पूरी लिंक रोड गायब हो गयी हो और हाई वे ठीक होने में कम से कम डेढ़ साल लगने की बात हो रही हो तब राजधानी तक अपनी बात पहुँचाने कोई कैसे आये।
जिनके पास हेलीकाप्टर की सुविधा है उनका तो कोई अपना है नहीं ।इस समय आलम ये है की देश भर से आने जाने की सुविधा पूरी है पर कोई पहाड़ के अपने गाँव तक जाना चाहे तो वो एवरेस्ट की चढ़ाई जैसा ही है। एवरेस्ट पर भी शेरपा सब मिल कर चढ़ा देते हैं पर यहाँ तो ऐसा कोई भी नहीं है। गाँव को दुनिया से जोड़ने वाला पुल कब का बह चुका है और चीड़ के लट्ठे डाल कर या लोहे के तारों पर गडारी लगा कर दुनिया से जुडने का एडवेंचर कर सकने की ताकत अभी भीतर तक दरक चुके गाँव वालों में नहीं है। न ही दिल्ली कमाने गए बेटे से गाँव में सिसकती माँ कह सकती है की तुम्हारे पिता जी का पता नहीं, तुम आओ और इन हालातों में उनकी तलाश करो। बेटे के बाजुओं में भी अब शायद उतना दम नहीं होगा जो कभी खेल-खेल में उफनती नदी में कूद जाता था और जब तक माँ पानी का एक घड़ा घर तक पहुंचा कर आती थी तब तक वो भी किनारे बैठ कर माँ का इंतज़ार करता मिलता था।
ऐसे में जीवित होने का सबूत देने के दिन तय करने का काम वही कर सकते हैं जिन्हें मालूम नहीं की पहाड़ होते क्या हैं। पहाड़ होते क्या हैं और क्या हैं उनकी मुश्किलें, इस सवाल का हल न तो किसी विकास पुरुष को मिला न ही किसी जनरल को फिर जिसके पहाड़ी होने पर ही सवाल उठ रहे हों उनसे ऐसी ही उम्मीद कैसे की जा सकती है की उनके फैसलों में पहाड़ भी शामिल हों। हाँ, इन सारे फैसलों में शामिल हैं पहाड़ के वो लोग जो गैरसैण की बात नहीं करना चाहते, पहाड़ के विकास का मतलब तराई और मैदानों में ऊँची इमारतों का जंगल तैयार करने से लगाते हैं।
पहाड़ से नीचे अपने ही मैदान में आया आदमी दूसरी ही दुनिया देखता है, जहाँ से उसके पहाड़ का कोई नाता ही नहीं है,बोली और थाली भी उसकी अपनी नहीं मिलती। वो फिर से अपने पहाड़ पर ही भाग जाना चाहता है, वो उन लोगों में शामिल ही नहीं हो सकता जो उसके ही बल पर राजधानी में बैठे हैं और कह रहे हैं की खुद के जिन्दा होने का सबूत हमारी दुनिया में लाकर रख दो नहीं तो जैसे पहाड़ वैसे ही तुम, दरकते रहेंगे पहाड़ और मरते रहोगे तुम। ये बिचारा तो देर सबेर साबित कर ही देगा की जिन्दा है क्योंकि उसकी जीवट उसे मरने नहीं देगी पर तमाम उन लोगों को भी जरुरत है की सबूत रख दें की उनके अन्दर भी जान है, जो ले रहे हैं अनोखे फैसले।

आपदा प्रभावितो को मिल रहे फटे कपड़े, सड़ा खाना

आपदा प्रभावितो को मिल रहे फटे कपड़े, सड़ा खाना
राजेन्द्र जोशी
देहरादून : आपदा से प्रभावित परिवारों तक पहुंचने वाली राहत अब प्रभावितों का मजाक उड़ाने लगी है। पुरोला में प्रभावितों के लिए राहत के नाम पर फटे पुराने कपड़ों से भरे बोरे और सड़ चुका खाद्यान्न पहुंचाया गया। सामान को देखकर प्रभावित सकते में है।
जून में आई आपदा से यमुना घाटी में भी काफी नुकसान हुआ। प्रभावित परिवारों को राहत देने के लिए देश विदेश से कई हाथ आगे आ रहे है। लेकिन इन दानदाताओं में से कईयों ने अपनी राहत देकर प्रभावितों का मजाक उड़ाया है। पुरोला में आपदा राहत के नाम पर दर्जनों बोरों में भरकर पुराने फटे कपड़े भेजे गये है। तो खाद्यान्न के नाम पर सड़ चुकी ब्रेड रस और खराब पानी की बोतलें भेजी गई है। वहीं बड़ी मात्रा में यहां पहुंचा राहत का सामान प्रशासन की भी गले की हड्डी बन चुका है। प्रभावित परिवारों ने इस राहत को स्वीकारने से साफ तौर पर मना कर दिया है। जिसके बाद अब प्रशासन के लिए यह राहत का सामान कबाड़ बनकर रह गया है।
आपदा प्रभावित मोरी के लिवाड़ी, फिताड़ी, राला, कास्ला समेत अन्य गांवों में लोगों को आपदा का सबसे ज्यादा नुकसान सहना पड़ा। संपर्क मार्गाे के ध्वस्त होने के बाद यहां खाद्यान्न समेत जरूरी चीजों का संकट गहरा रहा है। ऐसे में राहत के नाम पर किया जा रहा यह मजाक प्रभावितों के गले नहीं उतर रहा।

प्रदेश का आपदा प्रबंधन पूरी तरह रहा नाकाम: कुंजवाल

प्रदेश का आपदा प्रबंधन पूरी तरह रहा नाकाम: कुंजवाल


मुख्यमंत्री  को कई सुझाव भी दिये

राजेन्द्र जोशी
देहरादून । उत्तराखण्ड विधानसभा के अध्यक्ष गोविन्द सिह कुंजवाल ने एक बार फिर मुख्यमंत्री की मुसीबतों को बढ़ा दिया है । इस बार मुसीबत राजनैतिक नहीं बल्कि राज्य में आयी आपदा से निपटने में सरकार की हीला हवाली व नाकामी को लेकर है। विधानसभा अध्यक्ष नें तो मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में यहां तक कह दिया है कि प्रदेश का आपदा प्रबंधन तंत्र पूरी तरह से नाकाम रहा है जिससे आपदा से ज्यादा नुकसान हुआ है। जिसे रोका जा सकता था। पत्र में गोविन्द सिंह कुंजवाल ने प्रदेश की वर्तमान स्थिति पर चिन्ता जाहिर करते हुए रोजगार व जनजीवन को भी इंगित किया है।
   विगत दिनांे उत्तराखण्ड में आई भीषण दैवीय आपदा के बाद प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने सड़क मार्ग से गढ़वाल एवं कुमाऊॅ के दैवीय आपदा ग्रस्त क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर आपदा से हुए नुकसान का स्थलीय निरीक्षण किया तथा राहत कार्यों का मौके पर जायजा लिया। कुंजवाल ने दैवीय आपदा से ग्रस्त क्षेत्रों का स्थलीय निरीक्षण के बाद आज प्रदेश के मुख्यमंत्री को आपदा प्रभावित क्षेत्रों एवं प्रभावित स्थानीय लोगों के पुनर्वास व आपदा प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्विकास, आपदा से जान माल की सुरक्षा हेतु प्रभावी कार्य योजनाओं के संबंध में महत्वपूर्ण सुझाव देते हुए पत्र भेजा है।
    मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में कुंजवाल ने बताया है कि उत्तराखण्ड राज्य अपनी  भौगोलिक एवं भूगर्भीय विशिष्ठताओं एवं विषमताओं के कारण देश के अन्य राज्यों से भिन्न है। उन्होंने कहा कि अन्य हिमालयी राज्यों से उत्तराखण्ड राज्य की भौगोलिक एवं भूगर्भीय समानताएं हैं, लेकिन नवगठित उत्तराखण्ड राज्य आपदाओं की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील राज्य है। उन्होंने कहा है कि गत दिनों प्रदेश में आई भीषण आपदा से निपटने हेतु हमें नवसृजित आधारभूत संरचनाओं की विश्वसनीयता को ध्यान में रखते हुए रूपरेखा तैयार करनी होगी। कुंजवाल ने मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में सरकार को सुझाव दिया है कि आपदाग्रस्त क्षेत्रों को अलग-अलग बांट कर आपदा प्रबन्धन की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। जिसके तहत मोटर मार्ग से पूर्ण रूप से कट गये क्षेत्रों का चिन्हीकरण करने व साथ ही आपदा से पूर्ण रूप से प्रभावित हो चुके क्षेत्रों का चिन्हीकरण किया जाना चाहिए। इसके अलावा कुंजवाल ने सुझाव दिया है कि प्रदेश के आपदाग्रस्त क्षेत्रों के पुर्ननिर्माण हेतु पूरे प्रदेश की माइक्रोजोनेशन मानचित्र का कार्य भूवैज्ञानिकों से पूरा कराया जाना चाहिए।
   उन्होंने कहा कि उनकी जानकारी में आया है कि उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद हेतु जो माइक्रोजोनेशन मानचित्र तैयार किया गया है उसे तत्काल प्राप्त कर उसी के अनुरूप पूरे प्रदेश की माइक्रोजोनेशन मानचित्र कम समय से तैयार करने की कार्य योजना बनाई जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के मानचित्र से यह पता लग पायेगा कि प्रदेश में कौन सा क्षेत्र आपदा की दृष्टि से सुरक्षित है और कौन से क्षेत्र संवेदनशील। साथ ही आपदाग्रस्त क्षेत्रों के पुर्ननिर्माण की कार्ययोजना में स्थानीय जनप्रतिनिधियों को शामिल किया जाना उचित होगा।
पत्र में उन्होंने मुख्यमंत्री को बताया कि प्रदेश में आयी दैवीय आपदा से जहॉ बड़ी जनहानि हुई है वहीं आपदा से प्रदेश का पर्यटन, पशुपालन, कृषि, औद्यानिकी पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। जिसे देखते हुए उक्त हानि का सूक्ष्म अध्ययन शीघ्र करते हुए उनके पुनर्वास की कार्य योजना को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा है कि सार्वजनिक रूप से यह सामने आया है कि प्रदेश का आपदा तंत्र पूरी तरह से फेल रहा है। इसलिए आपदा प्रबन्धन तंत्र को चुस्त-दुरस्त रखते हुए आपदा प्रबन्धन तंत्र कार्य योजना के अन्तर्गत इस पुर्नसृजित किया जाना जनहित में होगा।
    कुंजवाल ने मुख्यमंत्री को सुझाव दिया है कि आपदा से निपटने तथा आपदा को रोकने हेतु नदियों के किनारों में भवन निर्माण व सार्वजनिक निर्माण कार्यो में तत्काल प्रभाव से रोक लगाते हुए नदी के किनारों का अध्ययन कर प्रतिबन्धित क्षेत्र का निर्धारण करते हुए नदी के बाढ़ वाले क्षेत्रों से सभी निजी व सरकारी भवनों को तत्काल हटाने, चारधाम यात्रा में जाने वाले सभी यात्रियों व उनके वाहनों का अनिवार्य रूप से पंजीकरण किये जाने, आपदाग्रस्त गॉवों में आवश्यकतानुसार राहत सामग्री पहुॅचाने तथा इस हेतु शीघ्र एक अल्पकालिक तंत्र विकसित किये जाने, राहत सामग्री के वितरण हेतु स्थानीय भूतपूर्व सैनिकों का तंत्र जिला, तहसील,ब्लाक व ग्राम पंचायत स्तर पर तैयार कर वितरित किये जाने, सभी आपदाग्रस्त गॉवों में जहॉ चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है का चिन्हीकरण कर वहॉ अनिवार्य रूप से एक चिकित्सकों की तैनाती करने, चार धाम यात्रा मार्ग में आपदा से प्रभावित जिनका व्यवसाय प्रभावित हो चुका है उसे देखते शीघ्र चारधाम यात्रा प्रारम्भ करने के लिए प्रभावी कदम उठाने की सलाह देते हुए आशा व्यक्त की है कि मुख्यमंत्री इन सुझावों को गम्भीरता से लेते हुए प्रभावी कदम उठायेंगे ताकि राज्य की जनता को परेशानी से बचाया जा सके।