अपने लापता परिजनों की तलाश में भटक रहे लोग
अपनों के बारे में जानकारी न मिलने से परेशान है परिजन
देहरादून
। केदारघाटी में आपदा के दौरान लापता हुए लोगों की तलाश में परिजन और
रिश्तेदार लगातार भटक रहे हैं। लोगों को अपनों के बारे में जानकारी नहीं
मिल पा रही है, जिस कारण वह परेशान हैं। लोगों का कहना है कि उन्हें अपनों
की खबर चाहिए।
आपदा के एक महीने बाद भी राज्य में 5,748 लोग लापता हैं।
लापता लोगों के परिजन और सगे-संबंधी उनकी तलाश में दिन-रात एक किए हुए हैं।
देहरादून, ऋषिकेश समेत विभिन्न स्थानों पर सैकड़ों लोग अपनों की तलाश में
दर-दर भटक रहे हैं। उन्हें अपनों की वापसी की इंतजार है। विभिन्न राज्यों
के लोग अपना काम-धाम छोड़कर पिछले एक महीने से उत्तराखंड में अपने लापता
लोगों को ढूंढ रहे हैं। जगह-जगह दीवारों पर पोस्टर, पूरा ब्यौरा चिपकाया
गया है। अपनों की तलाश में आए लोगों को मुआवजा नहीं चाहिए वह तो अपनो की
खबर के लिए सरकार को पैसा देने के लिए भी तैयार हैं। पीड़ित परिवार के लोगों
का कहना है कि उन्हें प्रशासन से कोई मुआवजा नहीं चाहिए। पैसा किसी की
जिंदगी से बड़ा नहीं होता। प्रशासन अगर कुछ करना चाहता है तो तलाश के दिन
बढ़ा दे।
राज्य में 5,748 लोग प्राकृतिक आपदा के बाद से लापता हैं,
इनमें से 4,804 लोग दूसरे राज्यों के हैं जबकि उत्तराखंड के 944 लोगों का
पता नहीं लग रहा है। सरकार ने कानूनी वजह से ऐसे लोगों को अभी मृत नहीं
माना है। सरकार का दावा है कि जो पैसा दिया जा रहा है वो मुआवजा नहीं है और
लापता लोगों की तलाश लगातार जारी रहेगी। कुछ ऐसे लोग भी लापता हैं जिन्हें
कि बचाव कार्य के दौरान हैलीकॉप्टर से सुरक्षित निकाला गया था। एक महीने
से लोग अपने लापता परिजनों को ढूंढने में जुटे हैं लेकिन कोई सुराग नहीं लग
पा रहा है। कुछ लोगों को उम्मीद है कि उनके लापता परिजन उन्हें जरूर
मिलेंगे। इसी बीच जो जानकारी आज खबर को मिल रही है, उसके तहत हताश- निराश
कई लोग ज्योतिषियों की चौखट में भी दस्तक दे रहे हैं। ज्योतिषियों द्वारा
जो संभावित स्थान बताए जा रहे हैं लोग वहां भी अपने लापता परिजनों को ढूंढ
रहे हैं। दैवीय आपदा के बाद राज्य में राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश,
पंजाब, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली आदि राज्यों के तीर्थयात्री लापता हैं। इन
राज्यों के लोग एक माह पूर्व उत्तराखंड में चारधाम यात्रा पर निकले थे।
उत्तराखंड की आपदा में वे लोग भाग्यशाली रहे जो सुरक्षित निकाल
लिए गए और घर पंहुच गए लेकिन कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें 'लोगों
को सुरक्षित निकाला गया, बचाया हुआ' बताया गया.लेकिन न वो घर ही पहुँच पाए
हैं और न आपदा में घायल लोगों में शामिल हैं.
विडंबना ये है कि इसके
बावजूद आज तक वो घर नहीं पंहुचे हैं. उनके परिजन हताश हैं, आक्रोश में हैं
और सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है.
सरकार ने अब तक 5,350
लोगों की सूची दी है जिनका पता नहीं चल पाया और इस आपदा के दौरान लापता
लोगों की तलाश के लिए बनाए गए 'मिसिंग सेल' को अब बंद भी करने की तैयारी चल
रही है.
ऐसे में सवाल उठता है कि वैसे लोग आख़िर गए तो कहां गए जो आपदा
के बाद कथित रूप से सुरक्षित देखे और बचाए भी गए लेकिन घर नहीं लौट पाए.
अमेठी
के सुरेंद्र दुबे पिछले तीन हफ्तों से अपने माता-पिता की फ़ोटो लिए
देहरादून में सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट-काटकर थक हो चुके हैं.
वो
बताते हैं, "मेरे माता-पिता, बद्री प्रसाद दुबे और विद्यावती दुबे केदारनाथ
घूमने आए थे. 16 जून को उनसे आख़िरी बात हुई थी और उन्होंने दर्शन कर लिया
था. उस दिन उन्होंने बताया था कि बहुत बारिश हो रही है फिर ये घटना हो गई.
हमने उनकी रिपोर्ट लिखा दी थी और खोज ख़बर कर रहे थे कि 22 जून को हमें
रूद्रप्रयाग से फ़ोन आया. किसी सरकारी अफ़सर ने कहा कि आपके माता-पिता
निकाल लिए गए हैं और उन्हें बस में बैठा दिया गया है लेकिन वो लौटकर नहीं
आए हैं. बताईए उन्हें कहाँ डाल दिया गया."
अमेठी के सुरेंद्र दुबे तीन हफ्तों से अपने माता पिता की तलाश में हैं.
अपनी
बात के प्रमाण में वो सरकारी दस्तावेज़ भी दिखाते हैं. उत्तराखण्ड सरकार
की सूची में उनको 'रेसक्यूड' यानी बचाया हुआ बताया गया है और उत्तर प्रदेश
में ज़िला कार्यालय में बचाए हुए लोगों की सूची में भी 30 और 31 नंबर पर
उनका नाम लिखा हुआ है.
अमेठी के ही अभिषेक के अनुसार उनके माता-पिता 41 लोगों के साथ आए थे. उनमें से एक व्यक्ति जीवित घर लौटा है.
अभिषेक
कहते हैं, "जीवीत लौटे हुए व्यक्ति ने बताया कि सेना के जवानों ने
हेलिकॉप्टर से उन्हें पहले निकाला क्योंकि उनकी हालत बेहद ख़राब थी और
बाक़ी लोग सकुशल थे इसलिए उन्हें बाद में निकालने की बात कही गई लेकिन उन
सकुशल बताए जा रहे लोगों में कोई नहीं लौटा है."
अभिषेक सवाल करते हैं,
"अब सरकार ही बताए की जो लोग 22 जून तक जीवित थे वो कैसे मर गए, कैसे लापता
हो गए. उसके बाद तो कोई आपदा आई नहीं है."
"हमें मुआवज़ा नहीं चाहिए. सरकार बताए कि वो क्यों ढूंढ नहीं पा रही है. क्या उसके पास हेलिकॉप्टर नहीं हैं."
उदयपुर
में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डॉ विनीत सोनी के
माता-पिता गीता स्वर्णकार और डॉ. प्यारेलाल स्वर्णकार अपने पड़ोसी दंपत्ति
के साथ केदारनाथ आए थे.
विनीत सोनी ने उदयपुर से फ़ोन पर बताया, "हादसे
के बाद मैं जॉलीग्रांट एयरपोर्ट पर अपने माता-पिता की फ़ोटो के साथ उनके
इंतज़ार में खड़ा था. वहां हेलिकॉप्टर लोगों को लेकर आ रहे थे. उन्हीं में
से एक हेलिकॉप्टर से लाए गए गोंडा के देवकीनंदन शुक्ला ने मेरी माँ और पापा
को तुरंत पहचान लिया और कहा कि हम लोग पांच दिन तक जंगलचट्टी में साथ थे.
मेरी तबीयत ख़राब थी इसलिए हमें हेलिकॉप्टर से लाया गया जबकि इनको सड़क
मार्ग से निकाल रहे हैं."
विनीत बताते हैं कि उनकी माँ को 21 जून को
जंगलचट्टी से सेना के जवानों ने निकाला और सोनप्रयाग में गाड़ी में बिठा
दिया क्योंकि ये स्वस्थ थे. एक टेलीविज़न चैनल के 21 जून के वीडियो में भी
उनकी माँ दिख रही हैं.
बक़ौल विनीत जब उनकी माँ घर नहीं आईं तो वो
गुप्तकाशी और फ़ाटा तक गए और उनकी इन दोनों जवानों से भी मुलाक़ात हुई जो
वीडियो में उनकी माँ को पकड़कर लाते हुए दिख रहे हैं और उनके नाम मानवेंद्र
सिंह और सुरेंद्र सिंह हैं. उन्होंने भी इसकी पुष्टि की कि उनकी मां ठीक
हाल में थीं और उन्हें गाड़ी में बिठा दिया गया था. वहां के रिकॉर्ड में
उनकी मां ही नहीं आंटी विमला देवी का नाम भी 'रेस्क्यूड' लोगों में है.
विनीत
कहते हैं कि सरकार के पास कोई सटीक आँकड़ा नहीं है और उत्तराखण्ड सरकार के
अफ़सर और मंत्री इतने संवेदनहीन हैं और इस तरह से बात करते हैं जैसे मैं
उनसे सालों पहले की बात पूछ रहा हूं.
डॉ विनीत सोनी का आरोप है, "मैं
दावे से कह सकता हूं कि जितने लोग आपदा में नहीं मरे होंगे उससे अधिक
उत्तराखंड सरकार की बदइंतज़ामी और लापरवाही से मरे होंगे. इस बात की जांच
कराई जानी चाहिए कि सेना ने तो आपदाग्रस्त इलाक़ों से लोगों को सुरक्षित
निकाल कर अपना काम कर दिया लेकिन उसके बाद स्थानीय प्रशासन इतना लापरवाह
कैसे रह सकत है?"
"हमें मुआवजा नहीं चाहिये. सरकार बताए कि वो क्यों ढूंढ नहीं पा रही है. क्या उसके पास हेलीकॉप्टर नहीं हैं."
दरअसल
सेना के राहत और बचाव अभियान में पहले घायल और बीमार लोगों को निकाला गया
फिर महिलाओं और बच्चों को जिससे लोग पहले ही अपने-अपने दल से अलग-थलग पड़
गए थे.
आपदा प्रबंधन विभाग और मुख्य सचिव सुभाष कुमार यही कहते रहे हैं
कि हमने लोगों को निकाल दिया और फिर वो अपने-अपने घर चले गए. सवाल ये उठता
है कि बाढ़, बारिश और भूस्खलन की तबाही के बीच जीवन और मृत्यु से संघर्ष कर
रहे लोगों ख़ास तौर पर महिलाओं और बुजुर्गों की मानसिक दशा क्या ऐसी रही
होगी कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ा जाना चाहिये था.
सरकारी मशीनरी के
पास अब एक ही जवाब है कि सूची बनाई जा रही है, सत्यापन किया जा रहा है और
लापता लोगों का पता लगाने का काम अभी जारी रखा जाएगा लेकिन क्या इससे सरकार
अपनी जवाबदेही से बच सकती है?