उत्तराखंड में 337 गांव विस्थापन के लिए चिन्हित
राज्य स्तरीय पुनर्वास आधारित जनपैरवी कार्यशाला आयोजित
देव भूमि मीडिया ब्यूरो
द्रोण होटल में आयोजित इस कार्यशाला में प्रभु नारायण ने कहा कि यहां पर्यावरणीय पहलू के साथ लोक विज्ञान को महत्व दिया जाना जरूरी है। निरंतर दैवीय आपदा की घटनाओं को देखते हुए यहां के विकास के लिए अलग नीति निर्माण की आवश्यकता है। हिमालय पूरे दुनिया की जलवायु को नियंत्रित करता है। निरंतर बर्फ पिघलने की घटना, सूखा, बाढ़, की स्थिति आने वाले समय बड़ी आपदा का आमंत्रण है। इससे आपदा के न्यूनीकरण जनआधारित पुनर्वास के मुद्दे पर गंभीरता से एक नीति के साथ ढांचागत विकास का विकेंद्रित स्वरूप से विचार रखा। उन्होंने कहा कि हिमालयी राज्यों में सशक्त सूचना तंत्र की प्रणाली विकसित करने की जरूरत है। मौसम विभाग, विज्ञान प्रौद्योगिकी, आपदा सेना, पंचायतों, आपदा प्रबंधन तंत्र के बीच सक्रिय समन्वय बेहद जरूरी है।
कार्यशाला में जनदेश संस्था के सचिव लक्ष्मण सिंह नेगी ने कहा कि उत्तराखंड की जन आधारित पुनर्वास नीति नहीं है। आज संपूर्ण उत्तराखंड में 337 गांव विस्थापन के लिए चिन्हित किए गए हैं, जिसमें चमोली में 61, बागेश्वर में 42, पौड़ी में 26, पिथौरागढ़ में 126, टिहरी में 26, अल्मोड़ा में 9, नैनीताल में 6, उत्तरकाशी में 8, देहरादून में 2, रूद्रप्रयाग में 16 और उधमसिंहनगर में 1 गांव पुनर्वास के लिए चिन्हित हैं। इन गांवों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन राज्य बनने के 14 वर्षों बाद भी राज्य की नीतियां नहीं होने के कारण उनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा है। राष्ट्रीय आपदा नीति में भी सुधार की आवश्यकता है। ग्राम स्तर पर भी आपदा कोष पंचायत में होना चाहिए, जिसमें 1.50 की रकम होनी चाहिए, इसके अलावा जलनीति, वन नीति, महिला नीति, पंचायत नीति, भू नीति, जनपक्षीय कृषि नीति नहीं होने के कारण भी आपदा पुनर्वास के कार्य नहीं हो रहे हैं। शीघ्र ही सरकार को नीतियां घोषित करनी चाहिए।
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