उत्तराखंड में 210 सालों के इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी दैवीय आपदा
हिमालयी क्षेत्र का जनजीवन खतरे में....
सन 1797 की तबाही के बाद सन 1803 में आये प्रलयकारी भूकंप ने जहाँ उस समय उत्तराखंड की दो तिहाई जनता को अपने आगोश में ले लिया था जिसने भयंकर अकाल झेला. तत्कालीन समय में भले ही संसाधन इतने सुलभ नहीं थे और न ही विश्व समुदाय का परिचय इतना प्रगाढ ही था कि सूचना क्रान्ति के माध्यम से तत्काल कुछ राहत कार्यों को अंजाम देकर स्थितियां सुधार ली जाती, लेकिन आज फिर वही स्थितियां बनती दिखाई दे रही हैं. भले ही अकाल ना भी पड़े लेकिन जिन लाशों का अम्बार केदारघाटी में लगा हुआ है और उन्हें चील कौवे खुले आम नोंच रहे है, बदबू सारे वायुमंडल में फ़ैल रही है. तब उस से उत्पन्न होने वाले वायु संक्रमण से कई प्रकार के रोग फैलने से इनकार नहीं किया जा सकता।
हिमालयी क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थितियों व संवेदनशील भूगर्भीय संरचना के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों के हो रहे अंधाधुंध दोहन के चलते हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता और अधिक बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप में क्षेत्र में हर वर्ष आपदा के रुप में बड़ी-बड़ी घटनाएं सामने आ रही हैं।
अभी केदारघाटी में घटित दैवीय आपदा थमी भी नहीं है कि कुमाऊँ मंडल का जिले बागेश्वर इसकी चपेट में आ गया है जिसके लगभग 175 गांव दैवीय आपदा के संकट से जूझ रहे हैं। सबसे ज्यादा प्रभावी क्षेत्र धारचूला का है जो नेपाल देश से देश कि सीमायें बांटता है। 18 अगस्त 2010 में बागेश्वर जिले के सुमगढ़ गांव में बादल फटने से स्कूल के 18 मासूमों का जिंदा दफन हो जाना हमें हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता से रुबरु कराता है। उससे भी पिछले वर्ष 8 अगस्त 2009 को मुनस्यारी के ला झकेला गांव में हुई बादल फटने की घटना ने पूरे गांव को जमींदोज कर दिया था। इस घटना में 48 लोग मारे गए थे, जिसमें से अब तक घटना में मारे गए लोगों के शव नहीं मिल पाए हैं। ऐसे में हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में रह रहे लोगों के पुर्नवास को लेकर हमेशा से उठते आए सवालों को फिर से बल मिल रहा है। साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों की संकरी घाटियों व नदियों के किनारे बसे गांवों का संवेदनशीलता को देखते हुए उनका भूगर्भीय सर्वे किए जाने की बात भी प्रमुखता से सामने आ रही है। इन क्षेत्रों का व्यापक अध्ययन के बाद यहां रह रहे लोगों का यदि पुर्नवास किया जाता है तो इससे हिमालयी क्षेत्र में आपदा की घटनाओं के दौरान होने वाले नुकसान व जनहानि को कम किया जा सकता है।
भू-गर्भीय हलचलों के बारे में भू-गर्भीय वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर चेतावनी देने के बावजूद भी हर वर्ष बरसात शुरू होते ही छोटी बड़ी घटनाएं होती ही रही जिन्हें प्रदेश में आती जाति सरकारें एक कान से सुनकर दुसरे कान से बाहर निकाल दिया करती थी लेकिन लगभग दो शताब्दियों के पश्चात हुई इतनी बड़ी जन हानि ने सिर्फ प्रदेश सरकार ही नहीं बल्कि विश्व पटल के उन सभी देशों को जरुर चौकन्ना रहने की चेतावनी दे दी है जो हिमालयी क्षेत्र के करीब हैं. विगत 16-17 जून को चार धाम क्षेत्र में हुई हज़ारों कि संख्या में मौतों ने सबको दहलाकर रख दिया है. सबसे बड़ी त्रासदी केदार घाटी को झेलनी पड़ी है।
पिछले 52-53 वर्षों कि अगर बात करें तो दैवीय आपदाएं घटने कि जगह निरंतर बढती ही जा रही हैं. पर्याप्त संसाधनों के बावजूद भी यह आपदा बिन बताये आने वाली आपदा होती है जो अपने साथ सबको कालग्रास बना लेती है चाहे बूढा, जवान बच्चा हो या फिर अमीर गरीब। लाख चेतावनियों के बावजूद भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते हैं और फिर शुरू होता है तबाही का ऐसा मंजर जिसे देख रूह तक कांपने लगती है. सन 1961 के बाद से आई आपदाओं की अगर बात करें तब जाकारी मिलती है कि इन दैवीय आपदाओं ने अब तक कितनी जानें लील ली हैं. जुलाई 1961 में धारचूला में आई दैवीय आपदा में 12 मौतें हुई, जबकि अगस्त 1968 में तवाघाट में 22 लोग मारे गए. जुलाई 1973 में कुर्मी में 37, अगस्त 1989 में मद्महेश्वर में 109, जुलाई 2000 में खेतगॉव में 5, अगस्त 2002 में टिहरी गढ़वाल की गंगा घाटी में 29, जुलाई 2003 में डीडीहाट में 4, जुलाई 2004 में लाल गगड़ में 7, 12 जुलाई 2007 में देवपुरी में 8, 5 सितम्बर 2007 में बरम (धारचूला) में 10, 6 सितम्बर 2007 में लधार (धारचूला) में 5, 17जुलाई 2008 में अमरुबैंड में 17, 8 अगस्त 2009 में ला झकेला में 45, 18 अगस्त 2010 में सुमगढ़ (बागेश्वर) में 18 लोगों कि मौत हो चुकी है. वर्ष 2013 में अभी सरकार द्वारा दैवीय आपदा से मरने वालों के स्पष्ट आंकड़े सामने नहीं लाये गए हैं, फिर भी मरने वालों कि संख्या एक अनुमान के आधार पर 20 से 25 हज़ार बतायी जा रही है. अभी बरसात का शुरूआती चरण है और शुरुआत में ही ऐसी तबाही ने देश और प्रदेश को भयातुर कर झकझोर दिया है. अब भी अगर हम नहीं चेत पाए तो आगामी समय में इससे बड़ी आपदा के लिए हमें कमर कसकर झेलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. वर्ष 1803 के बाद यह पूरे प्रदेश की सबसे बड़ी आपदा के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी है।
हिमालयी क्षेत्र का जनजीवन खतरे में....
सन 1797 की तबाही के बाद सन 1803 में आये प्रलयकारी भूकंप ने जहाँ उस समय उत्तराखंड की दो तिहाई जनता को अपने आगोश में ले लिया था जिसने भयंकर अकाल झेला. तत्कालीन समय में भले ही संसाधन इतने सुलभ नहीं थे और न ही विश्व समुदाय का परिचय इतना प्रगाढ ही था कि सूचना क्रान्ति के माध्यम से तत्काल कुछ राहत कार्यों को अंजाम देकर स्थितियां सुधार ली जाती, लेकिन आज फिर वही स्थितियां बनती दिखाई दे रही हैं. भले ही अकाल ना भी पड़े लेकिन जिन लाशों का अम्बार केदारघाटी में लगा हुआ है और उन्हें चील कौवे खुले आम नोंच रहे है, बदबू सारे वायुमंडल में फ़ैल रही है. तब उस से उत्पन्न होने वाले वायु संक्रमण से कई प्रकार के रोग फैलने से इनकार नहीं किया जा सकता।
हिमालयी क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थितियों व संवेदनशील भूगर्भीय संरचना के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों के हो रहे अंधाधुंध दोहन के चलते हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता और अधिक बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप में क्षेत्र में हर वर्ष आपदा के रुप में बड़ी-बड़ी घटनाएं सामने आ रही हैं।
अभी केदारघाटी में घटित दैवीय आपदा थमी भी नहीं है कि कुमाऊँ मंडल का जिले बागेश्वर इसकी चपेट में आ गया है जिसके लगभग 175 गांव दैवीय आपदा के संकट से जूझ रहे हैं। सबसे ज्यादा प्रभावी क्षेत्र धारचूला का है जो नेपाल देश से देश कि सीमायें बांटता है। 18 अगस्त 2010 में बागेश्वर जिले के सुमगढ़ गांव में बादल फटने से स्कूल के 18 मासूमों का जिंदा दफन हो जाना हमें हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता से रुबरु कराता है। उससे भी पिछले वर्ष 8 अगस्त 2009 को मुनस्यारी के ला झकेला गांव में हुई बादल फटने की घटना ने पूरे गांव को जमींदोज कर दिया था। इस घटना में 48 लोग मारे गए थे, जिसमें से अब तक घटना में मारे गए लोगों के शव नहीं मिल पाए हैं। ऐसे में हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों में रह रहे लोगों के पुर्नवास को लेकर हमेशा से उठते आए सवालों को फिर से बल मिल रहा है। साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों की संकरी घाटियों व नदियों के किनारे बसे गांवों का संवेदनशीलता को देखते हुए उनका भूगर्भीय सर्वे किए जाने की बात भी प्रमुखता से सामने आ रही है। इन क्षेत्रों का व्यापक अध्ययन के बाद यहां रह रहे लोगों का यदि पुर्नवास किया जाता है तो इससे हिमालयी क्षेत्र में आपदा की घटनाओं के दौरान होने वाले नुकसान व जनहानि को कम किया जा सकता है।
भू-गर्भीय हलचलों के बारे में भू-गर्भीय वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर चेतावनी देने के बावजूद भी हर वर्ष बरसात शुरू होते ही छोटी बड़ी घटनाएं होती ही रही जिन्हें प्रदेश में आती जाति सरकारें एक कान से सुनकर दुसरे कान से बाहर निकाल दिया करती थी लेकिन लगभग दो शताब्दियों के पश्चात हुई इतनी बड़ी जन हानि ने सिर्फ प्रदेश सरकार ही नहीं बल्कि विश्व पटल के उन सभी देशों को जरुर चौकन्ना रहने की चेतावनी दे दी है जो हिमालयी क्षेत्र के करीब हैं. विगत 16-17 जून को चार धाम क्षेत्र में हुई हज़ारों कि संख्या में मौतों ने सबको दहलाकर रख दिया है. सबसे बड़ी त्रासदी केदार घाटी को झेलनी पड़ी है।
पिछले 52-53 वर्षों कि अगर बात करें तो दैवीय आपदाएं घटने कि जगह निरंतर बढती ही जा रही हैं. पर्याप्त संसाधनों के बावजूद भी यह आपदा बिन बताये आने वाली आपदा होती है जो अपने साथ सबको कालग्रास बना लेती है चाहे बूढा, जवान बच्चा हो या फिर अमीर गरीब। लाख चेतावनियों के बावजूद भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते हैं और फिर शुरू होता है तबाही का ऐसा मंजर जिसे देख रूह तक कांपने लगती है. सन 1961 के बाद से आई आपदाओं की अगर बात करें तब जाकारी मिलती है कि इन दैवीय आपदाओं ने अब तक कितनी जानें लील ली हैं. जुलाई 1961 में धारचूला में आई दैवीय आपदा में 12 मौतें हुई, जबकि अगस्त 1968 में तवाघाट में 22 लोग मारे गए. जुलाई 1973 में कुर्मी में 37, अगस्त 1989 में मद्महेश्वर में 109, जुलाई 2000 में खेतगॉव में 5, अगस्त 2002 में टिहरी गढ़वाल की गंगा घाटी में 29, जुलाई 2003 में डीडीहाट में 4, जुलाई 2004 में लाल गगड़ में 7, 12 जुलाई 2007 में देवपुरी में 8, 5 सितम्बर 2007 में बरम (धारचूला) में 10, 6 सितम्बर 2007 में लधार (धारचूला) में 5, 17जुलाई 2008 में अमरुबैंड में 17, 8 अगस्त 2009 में ला झकेला में 45, 18 अगस्त 2010 में सुमगढ़ (बागेश्वर) में 18 लोगों कि मौत हो चुकी है. वर्ष 2013 में अभी सरकार द्वारा दैवीय आपदा से मरने वालों के स्पष्ट आंकड़े सामने नहीं लाये गए हैं, फिर भी मरने वालों कि संख्या एक अनुमान के आधार पर 20 से 25 हज़ार बतायी जा रही है. अभी बरसात का शुरूआती चरण है और शुरुआत में ही ऐसी तबाही ने देश और प्रदेश को भयातुर कर झकझोर दिया है. अब भी अगर हम नहीं चेत पाए तो आगामी समय में इससे बड़ी आपदा के लिए हमें कमर कसकर झेलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. वर्ष 1803 के बाद यह पूरे प्रदेश की सबसे बड़ी आपदा के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी है।
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